मैंने उस छोर पर देखा था
विशाल जलराशि
और पास आकर देखा तो सब
मृगजल था
सब रेगिस्तान था
मकानों में लोग थे, हवस और
शान्ति थी
वातायन था, झूठ था, जीवन था
लेकिन मेरा दम घुट रहा था
और कुछ लोगों से मुझसे कह
दिया था
“माँ रेवा! तेरा पानी
निर्मल’’
मैं भागता नर्मदा के पास
चला आया
दुर्गावती की निशानियाँ धूल
बन रही थी
फिर पानी का गिलास उठाकर
ज्ञात हुआ इसमें जहर है
मैं यहाँ भी प्यासा रह गया
उस छोर पर पानी बिन प्यास
इस छोर पर पानी संग प्यास
और जीवन दो प्रेयसियों के
प्यास में
सद्क्षण डूबा रहता हैं
वहां जाता हूँ तो इसकी याद
आती है
यहाँ आता तो उसकी विरह में डूब
जाता हूँ
प्रेम सच में ‘बुरी चीज’ है
इसमें आग है, प्यास है,
पानी है
जोश है, रवानी है
शूल है, कटार है
और क्या-क्या हथियार है
इसमें डूबकर भी रहा नहीं
जाता
और डूबे बिना भी रहा नहीं
जाता.
यह जीवन इसी के संग
एक मटकती हुई तारका की तरह
चलती जाती है, चलती जाती है
और हम और आप बस देखते जाते
हैं
( ओंकारनाथ मिश्र, जबलपुर, २४
अगस्त २०१५)
waah ...bahut sundar ..!
ReplyDeleteसच कहा, दो प्रगाढ़ भावनाएं परस्पर विरोधाभासी झूले में झ्ाूलती हैं।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, प्याज़ के आँसू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteभावनाएं जैसी भी रहें पर प्रेम है जो रहता है ... चाहे फिर दो क्या अनेक प्रेयसियों के बीच हो ... शशक्त रचना ...
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
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