Tuesday, April 6, 2021

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

 

समय लगता हो गया है स्थिर

व्याप्त चारों ओर हो चुका तिमिर

विथित मन में आये फिर से वितामस

कर रहा हर यत्न, दृढ है स्व-साहस

सोचता प्रतिक्षण, देखता हूँ व्योम को

रवि उग जाता फिर, जब होता अवसान है 

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

आती रहती रह-रह कर एक प्रतिध्वनि 

कुछ भी होती नहीं जीवन में सत्गामिनी

रूप, यौवन, खिला सूरज, हर्ष, क्रंदन 

सतत तो रहता नहीं स्वयं अपना तन

फिर भी मन में रहती जागृत लोभ-ग्रंथि

होती अर्जन की अभिलाषा, शेष जब तक प्राण है  

अपने ही अंतर का यह एक गान है


होती नहीं ज्वलित वेदना अब स्वानंतर

फिर भी एक टीस होती उदीप्त निरन्तर

जलधि सम बाधाओं का विस्तार है

फिर भी मन ने मानी नहीं अभी हार है

ओज है, उर्जा है, स्वप्न की उड़ान है

साधूँगा तब तक निशाना, जब तक तीर कमान है 

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

वो क्षुधा हुई बनी अब भी  उदर में

ये तो है पहली लड़ाई जीवन समर में

भ्रांत मन हैं, फिर भी है आशा विराट

अंत तो होगा ही एक दिन यह विभ्राट

यह जरूरी है बहुत मन मीन सम हो चंचला  

और मचलता ही रहे जब तक होता उत्थान है

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, २४-९-२०१२ )

 


 

 

3 comments:

  1. भिन्न भिन्न समस्याओं से जूझते हुए भी सच तो यही है कि अपने ही अंतर का गान सुनाई देता है ... भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  2. पूरी उर्जा और उत्साह से स्वप्नों में उड़ान हो साथ ही अनवरत तीर संधान हो । ऐसी आशा है कि चाहे कितना भी व्यवधान हो पर अंतर का यही गान हो ।

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  3. भावप्रवण प्रभावशाली लेखन

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