कोसती है रिक्त बाहें
उर की वीणा झनझना कर पूछती
है आज मुझसे
गान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?
दिन ये बीते जा रहे हैं, रात
लम्बी हो रही है
पा रहा है क्या ये जीवन, क्या
ये दुनिया खो रही है
क्या पता था दो दिनों का
साथ देकर मान मेरे ..........?
मान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?
क्षितिज में है शून्यता,
छाया अँधेरा
जम चुका है तारिकाओं का
बसेरा
कितने निर्मम तुम भी लेकिन चान
मेरे
चान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?
(ओंकारनाथ मिश्र, ग्वालियर, २७ दिसम्बर २०१५ )
भावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteआपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये दिनांक 28/12/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
बेहतरीन .....
ReplyDeleteसुन्दर रचना ।
ReplyDeleteवाकई बहुत भ्रमपूर्ण स्थितियां हैं, समझ नहीं आता क्या करें, जीवन को सार्थक कैसे करें, बहुत सुन्दर उकेरा है इन भावों को कविता में।
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति !
ReplyDeleteनव वर्ष आपको और आपके परिवार में सभी को बहुत -बहुत मंगलमय हो.शुभकामनाएँ!
साधू साधू
ReplyDeleteउठ चुकी हैं सर्द आहें
ReplyDeleteकोसती है रिक्त बाहें
उर की वीणा झनझना कर पूछती है आज मुझसे
गान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ..
वाह कितनी सुन्दर पंक्तियाँ ... भरपूर गेयता और भाव ... सच में दिलको झंकृत कर गयी ....