Saturday, December 26, 2015

प्राण मेरे तुम कहाँ हो

 उठ चुकी हैं सर्द आहें
कोसती है रिक्त बाहें
उर की वीणा झनझना कर पूछती है आज मुझसे
गान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?

दिन ये बीते जा रहे हैं, रात लम्बी हो रही है
पा रहा है क्या ये जीवन, क्या ये दुनिया खो रही है  
क्या पता था दो दिनों का साथ देकर मान मेरे ..........?
मान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?

क्षितिज में है शून्यता, छाया अँधेरा
जम चुका है तारिकाओं का बसेरा   
कितने निर्मम तुम भी लेकिन चान मेरे
चान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?


(ओंकारनाथ मिश्र, ग्वालियर, २७ दिसम्बर २०१५ )

8 comments:

  1. भावपूर्ण रचना..

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  2. जय मां हाटेशवरी...
    आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...

    इस लिये दिनांक 28/12/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....
    धन्यवाद...

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  3. सुन्दर रचना ।

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  4. वाकई बहुत भ्रमपूर्ण स्थितियां हैं, समझ नहीं आता क्‍या करें, जीवन को सार्थक कैसे करें, बहुत सुन्‍दर उकेरा है इन भावों को कविता में।

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  5. बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति !
    नव वर्ष आपको और आपके परिवार में सभी को बहुत -बहुत मंगलमय हो.शुभकामनाएँ!

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  6. उठ चुकी हैं सर्द आहें
    कोसती है रिक्त बाहें
    उर की वीणा झनझना कर पूछती है आज मुझसे
    गान मेरे तुम कहाँ हो
    प्राण मेरे तुम कहाँ हो ..
    वाह कितनी सुन्दर पंक्तियाँ ... भरपूर गेयता और भाव ... सच में दिलको झंकृत कर गयी ....

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