कई महीनों से 'ग़ज़ल' लिख पाना संभव नहीं हो पाया. ग़ज़ल की पूरी समझ अभी भी नहीं है मुझे. रदीफ़ और काफियाबंदी जरूर कर लेता हूँ अब. लेकिन बहर के लिए शायद किसी उस्ताद का शागिर्द बनना होगा. नज़ाकत और नफ़ासत के लिए खासकर. अभी एक नयी 'ग़ज़ल' लिखी है. नया नाम और तखल्लुस के साथ. आपकी नज़र. मौजू , तखल्लुस के हिसाब से हैं.
‘ख़ाक’ है जो साथ तेरे बस यही एक वक़्त है
एक दिन
बज ही जायेगी तुम्हारी
साज़-ए-हस्ती एक दिन
फिर बशर है क्यूँ तिरी मतलब-परस्ती
एक दिन
तुम मुसाफिर इस दहर के, दो
दिनों की बात है
और तब तो डूबनी है तेरी
कश्ती एक दिन
शादमां कुछ, ग़मज़दा कुछ, और
कुछ हैरान से
हाल यक सा है यहाँ हर एक बस्ती एक दिन
क्या करोगे तुम मियाँ लेकर
ये गौहर साथ में
होवेगी जब यां तिरी ‘कज्ज़ाक-गश्ती’
एक दिन
‘ख़ाक’ है जो साथ तेरे बस यही एक वक़्त है
कौन जाने हो तुम्हारी फिर
से मस्ती एक दिन
-ओंकारनाथ मिश्र ‘खाक़’
(ग्वालियर, १६ जनवरी २०१६)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "एक कटु सत्य - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteयकीनन गजल का मिजाज आप में बसता है। ये बताइए कि ऐसा कौन सा वक़्त है जो आपको खाक कर दे।......
ReplyDeleteकौन कहता है आप ग़ज़ल नहीं लिख सकते ... मेरा तो मानना है हर व्यक्ति जिसमें भाव हैं ... संवेदना है वो ग़ज़ल कह सकता है ... और आपके हर शेर ने ये बात साबित की है ... मज़ा आ गया ... कई दिनों बाद ब्लॉग पे आया तो ये खाजा फिर से मिल गया ...
ReplyDeleteवाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल
ReplyDeleteवाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल
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