तुम्हारे शब्द ध्वनिमात्र
थे या
खून का रिसता दरिया
पता नहीं चल पाया कि
तुम्हारे आत्मा की आवाज़
या तुम्हारे सिगरेट का का
धुंआ
इसी व्योम की अप्रतिबंधित
यात्रा को निकले थे
( बस निकल कर विलीन होने को)
बहुत अँधेरे में जीते थे
तुम
(और तुम्हारी फूलन देवी)
प्रेम शब्द जीवन में छलावा भर
से ज्यादा है?
अपने ही घोंसले में कैद थे
तुम
कितने छद्म की गांठों पर
बहुत महीनी से तलवार चलायी
तुमने
और जीवन की सच्चाई भी अपना
तलवार चलाती रही
(७० साल के कश्मकश के बाद
का हासिल क्या अलग है)
नहीं होगी अलग, कभी नहीं
नहीं होगी
मन, हृदय और लिंग
जिसके त्रिकोण में फंसी
आत्मा, मनुष्य का प्रारब्ध है
मृत्यु वीभत्स है, या जीवन
इसका पता किसे है?
चाँद का मुंह टेढ़ा क्यों है
इसका पता किसे है ?
(ओंकारनाथ मिश्र, सागर, १३ नवम्बर २०१६)
क्या असल में मनुष्य का प्रारब्ध है ... और प्रेम भी तो शब्दों का ध्वनिमात्र ही है ... खोखली आवाज़ जो उठ ले विलीन होनी है आकश में ... और हाँ चाँद का मुंह तो टेड़ा ही है युगों से ...
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