Friday, April 10, 2015

तुम हड्डियाँ चबाओ

जो बिलखते हैं उन्हें और बिलखाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

यहाँ जगत की उर्वशियाँ और सबके कुबेर
कोई आधा-पौने नहीं, सब सेर सवा सेर
किसकी आत्मा? किसकी करुणा? किसकी किस्मत का फेर ?
यौवन के उफान पर फिर मूंछ लो टेर
‘रिब्स’ पर ‘बारबेक्यू’ न सही ‘बफैलो’ ही लगाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

क्या है मृत्यु, क्या है जीवन, क्या लवण है?
कौन सीता, कौन शंकर? क्या भजन है?
किसकी गंगा, क्यों हिमालय से लगन है?
क्या कहीं हिन्दोस्तां भी एक वतन है?
इस मध्यपूर्वी हुक्के का एक कश और चढाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

वासना सागर है, तो डुबकी लगाओ
हाथ मारो, पैर मारो, पार पाओ
दूध किसका? क्यों किसी को तुम चुकाओ
चुक ना जाए तेल, क्यों दीया जलाओ
कामिनी के रागिनी में राग लाओ
और मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

क्यों लटक है, क्यों झटक है, क्यों मटक है
चक्षु खोलो, यहाँ भी उट्ठापटक है
गोलियां है, गालियाँ है और चमक है
और तुम्हारी ग्रीवा में लचके-लचक है
आह! अपनी कमरिया भी मत लचकाओ
अभी मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

क्या वहां पर रात थी? न था सवेरा?
क्या खड़े है राक्षस वहां डाल डेरा?
फिर स्वजन के तंबू क्यों? क्यों है बसेरा
भीतचारी, क्यों है तुमने खुद को घेरा
जाओ कभी तिमिर में अलख जगाओ
तभी मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

सारा अपना छोड़ दो पर रंग अपना
माला जपना छोड़ दो पर ढंग अपना
मुख-विशाला, मगर हिरदय तंग अपना
आह उट्ठे! तो उठाओ संग अपना
संगसारी में यूँ ही कीर्ति बढाओ
मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

शीश देकर हँस रहा था वो सिपाही
मगर क्रंदन-लिप्त हो तुम कुसुमराही
यश भी लूटो, लूट लो तुम वाहवाही
हे उदर-लंबो! महाग्राहों के ग्राही
ठहर जाओ, बुभुक्षा की थाह पाओ
आदतन मेरे दोस्त! तुम ना हड्डियाँ चबाओ

(निहार रंजन, ऑर्चर्ड स्ट्रीट, १० अप्रैल २०१५ )

13 comments:

  1. जग (भारत सहित) विसंगतियों को अप्रतिम भावनाओं, कविता के माध्‍यम से प्रकट कर आपने सुषुप्‍तावस्‍था से हटाने का काम किया है। .............. शीश देकर हँस रहा था वो सिपाही, मगर क्रंदन-लिप्त हो तुम कुसुमराही। ये पंक्तियां कमाल की हैं।

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  2. पूर्व और पश्चिम की सोच और उसकी विसंगतियों को बहुत खूब उकेरा है आपने .... और हड्डियां चबाने के मार्फत दिया गया संदेश और उसका तरीका भी उत्कृष्ट है

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  3. बेहतरीन पंक्तियाँ

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  4. सारा अपना छोड़ दो पर रंग अपना
    माला जपना छोड़ दो पर ढंग अपना
    मुख-विशाला, मगर हिरदय तंग अपना
    आह उट्ठे! तो उठाओ संग अपना
    संगसारी में यूँ ही कीर्ति बढाओ
    मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ

    शानदार प्रस्तुति।

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  5. क्या है मृत्यु, क्या है जीवन, क्या लवण है?
    कौन सीता, कौन शंकर? क्या भजन है?
    किसकी गंगा, क्यों हिमालय से लगन है?
    क्या कहीं हिन्दोस्तां भी एक वतन है?
    इस मध्यपूर्वी हुक्के का एक कश और चढाओ
    मगर मेरे दोस्त! तुम हड्डियाँ चबाओ
    वैसे तो रचना का हर छंद नए अर्थ खोजता है आज के सन्दर्भ में ... एक विरोधाभास जिसमें सभी जी रहे हैं ...अपनी अपनी हड्डियां चबाते ... गहरी, सटीक ए व्यंगात्मक अंदाज की लाजवाब रचना ...

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  6. कमाल की कविता लिखी है आपने. अनुभव के गहरे सागर में जाने पर ऐसा ही मिलता है।

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  7. शीश देकर हँस रहा था वो सिपाही
    मगर क्रंदन-लिप्त हो तुम कुसुमराही
    यश भी लूटो, लूट लो तुम वाहवाही
    हे उदर-लंबो! महाग्राहों के ग्राही
    ठहर जाओ, बुभुक्षा की थाह पाओ

    बहुत ही दमदार लेखन,मज़ा अ गया पढ़के.
    वर्तमान के स्थिति का यथार्थपूर्ण चित्रण...

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  8. बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.

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  9. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

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  10. बेहद सशक्त और गहन अभिव्यक्ति

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  11. समाज की विद्रूपताओं पर कटाक्ष करती एक बेहतरीन कविता।
    बहुत बढि़या ।

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  12. कड़वा सच, गहरी बात!

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  13. बहुत ही गहरी बात दिल को छू गई

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