ले मृदा से खनिज पोषण
पौध बढ़ता जा रहा था
शाख धर नव, पर्ण धर नव
सबकी दृष्टि, भा रहा था
और बसंती पवन ने
आते ना जाने क्या किया था
स्पर्श कर हर वृन्त को
कलियों से दामन भर दिया था
कसमसा उठी थी शिरायें
फूट खुली थी सारी कलियाँ
आने वाला पुष्प नया है
चर्चे फैले गलियाँ-गलियाँ
दो पल ही बीते थे शायद
खिला पुष्प खिलखिला रहा था
मद्धिम समीर के संग-संग ही
अपना सौरभ मिला रहा था
तो फिर क्या था, मचले भौंरे
सारा उसका रस पाने पाने को
सटते, छूते, पीते, पाते
मादक होकर, फिर गाने को
रूप ही उसका था कुछ ऐसा
इतने तक ही बात नहीं थी
सोच रही थी एक पुजारिन
क्यों वो उसके हाथ नहीं थी
क्षुब्ध हो गया पुष्प सोचते!
है कैसा प्रारब्ध लिखित यह प्रोष?
निर्माता से चूक हुई या
है रसचोषी का ही कोई दोष?
पुष्प ने ऐसा कब चाहा है
सबको इतना मैं ललचाऊँ
जो आये होश गँवा बैठे
फिर किसी गले जा
इतराऊं
फूले-फैले जननी संग ही
जब समय बिखरने का आये
बिखरे भी वो अपने ढंग ही
क्या खेल रचा तूने बिधना
भव के चहुँदिश विस्तार में
पहले उड़ेल दिया जीवन
फिर व्यथा भरा संसार में
(ओंकारनाथ मिश्र, ईजली, २७ मार्च २०१५)
इतना भी भाग्य नहीं उसको
ReplyDeleteफूले-फैले जननी संग ही
जब समय बिखरने का आये
बिखरे भी वो अपने ढंग ही
बहुत सुन्दर मार्मिक भाव ...निहार जी
सुन्दर रचना
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
पुष्प ने ऐसा कब चाहा है
ReplyDeleteसबको इतना मैं ललचाऊँ
जो आये होश गँवा बैठे
फिर किसी गले जा इतराऊं ..
किसी के चाहने से वैसे भी कहाँ कुछ होता है ... प्राकृति जो निर्धारित कर देती है वैसा ही होता रहता है ... और सच देखो तो कसूर भँवरे का भी कहाँ होता है ...
ये सब बातें जानते हुए भी सब नासमझ रहते हैं ... ऊपरवाला यही देख कर मुस्कुराता रहता है ...
बहुत लाजवाब भावपूर्ण गहरा अर्थ लिए है रचना ....
क्या खेल रचा तूने बिधना
ReplyDeleteभव के चहुँदिश विस्तार में
पहले उड़ेल दिया जीवन
फिर व्यथा भरा संसार में .........................बहुत सुन्दर। अद्वितीय भावों से युक्त कविता। इसमें जीवन की विडम्बना को भावनात्मक रस से भर दिया है।
मार्मिक और संवेदनशील भाव
ReplyDeleteपहले उड़ेल दिया जीवन
ReplyDeleteफिर व्यथा भरा संसार में
जो सबसे ज्यादा हंसांते हैं वही आंसूं देकर जाते हैं।
ReplyDeleteसब कुछ यहीं होना है। मन के अनुकूल व प्रतिकूल भी. आपकी कविता पूरे मनोयोग से अपने सोपान पर चढ़ती है और स्थापित होती है।
कविता में मानवीकरण देखते ही बनता है ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी सार्थक चिंतन भरी रचना ....
कविता में मानवीकरण देखते ही बनता है ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी सार्थक चिंतन भरी रचना ....
कितनी सहजता से एक गहन बात कही !!बहुत सुन्दर रचना !!
ReplyDeleteगहन भाव समेटे हुए सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteइतना भी भाग्य नहीं उसको
ReplyDeleteफूले-फैले जननी संग ही
जब समय बिखरने का आये
बिखरे भी वो अपने ढंग ही
...बहुत गहन और विचारणीय प्रस्तुति...किसे आजादी होती है अपनी इच्छानुसार जीने की...भावों और शब्दों का उत्कृष्ट संयोजन...लाज़वाब अभिव्यक्ति
निर्माता की कोई भूल चूक नहीं, फूल और उसके याचक भौरे न हो तो प्रकृति का काम कैसे चलेगा ? हाँ चाहने और हर हाल में हासिल करने के फरक को समझना होगा, बहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteभावपूर्ण और मार्मिक
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा पोस्ट।
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्णं और सुंदर रचना।
ReplyDeletehttp://natkhatkahani.blogspot.com
बहुत ही सूंदर...
ReplyDeleteउस मन की वेदना को बखूबी व्यक्तव्यक्त किया हैं जिसको विधाता से प्रश्न किया.
पहले उड़ेल दिया जीवन
ReplyDeleteफिर व्यथा भरा संसार में
मंगलकामनाएं आपको ........