बात बस इतनी सी थी
कि उसने अपनी टाँगे मेरे टाँगों पर रख दी थी
और सोचा था
कि जैसे नदी ने अपने में आकाश भर रखा है
जैसे एक ऑक्टोपस ने एक मछली का सर्वांग दबा रखा
है
वैसे एक सांप और सेब के गिरफ्त में सारी पृथ्वी
है
मैंने कई बार चाहा है कि मुझे एक पवित्र सांप मिले
एक पवित्र सांप―जो चुपके से आये और कुछ पावन कर जाए
पावन, अति-पावन
लेकिन सदियों से
मुझे, या भाई अमीरचंद फोतेदार
या व्रुनी, या डग विलियम्सन, या शैनन डिमेनिया
को वो सांप नहीं मिलता है
(अब राजा जनमेजय नहीं है तो कोई करता है नाग-यज्ञ?)
मिलता है
एक तक्षक सांप
मिलता है मुझे रिश्वत
मिलता है मुझे विष
(कहाँ गए नील कंठ?)
और एक काला सांप
काला सांप और―
सेब
जिसे मैं मजे से खता हूँ
सेब खाते ही सारा फ्रक्टोज और सुक्रोज घुलकर
मुझे नींद की आगोश में ले लेता है
और साँप बैठा रह जाता है
मैं अक्सर सोचता हूँ कि
मुनि आस्तिक इतने दयालु नहीं होते कि―
मुझे या मेगन कैम्पबेल को
यूरोप, अफ्रीका या ऑस्ट्रेलिया के लोगों को
या जंगल में चल रहे पथिकों को सांप का भय नहीं
होता
लेकिन जानता हूँ कि
सांप और सृष्टि की इस कथा में
ना सांप से पृथक यह सृष्टि है
ना सृष्टि से पृथक कोई सांप है
(ओंकारनाथ मिश्र, गोपाचल पर्वत, २६ जून २०१५)
यह बात इतनी सी कहां है, बहुत बड़ी है। इसीलिए तो डसने-डसवाने का चक्कर चल रहा है और उसके बाद सेब खाने को दे दिया जाता है।
ReplyDeletebahut badhiya ..
ReplyDeleteये सांप सांप का खेल तो चल रहा है अनादी काल से ... और इस खेल में सब माहिर हैं जो सांप और सत्ता (शक्ति) के करीब हैं ... वैसे इस श्रृष्टि और सेब का भी नाता शुरुआत से ही है ...
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को शनिवार, ०४ जुलाई, २०१५ की बुलेटिन - "दिल की बात शब्दों के साथ" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।
ReplyDeleteसाँप ही साँप है हमें दिख रहे हैं क्योंकि साँप लोग ही साँपों को देख पाते हैं नाग लोग नहीं ।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब...जब कुछ नहीं था तब भी थे सांप और सेव
ReplyDeleteनासवाजी की टिप्पणी के काफी करीब हूँ।
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