Friday, October 25, 2013

हाँ! बहुत कर सकता हूँ मैं

पिछले पोस्ट के  उस 'मैं'  से इस 'मैं' का संवाद  - 


‘नई सड़क’ की तंग वो गलियाँ
जिनके थे जर्जर दीवार
रत्न, मोतियाँ ले आया था
जहाँ से मैंने अनगिन बार
जाओ तभी तुम्हे मिल पाये
वहां जो है संचित भण्डार
किसे ज्ञात पंकिल राहों में
हो तेरा कल्पित संसार
वही तंत्र  है रहा पुकार
आ कर दो मुझको निर्विकार
मोटे चश्मे को दो उतार
देखो जिसका ये मांस, हाड़
वही जननी रही तुम्हे उचार
बदलो विचार! बदलो विचार! 

क्या भाग समस्या से
हो पाता उनका हल?
कर व्यर्थ नहीं अपने 
गठित बांहों का बल
संग्राम तुम्हारा है लड़
बिना किये यौवन निष्फल
रुकता क्यों है तू कायर सा
तेरी मिटटी, जा चला दे हल 
फिर देख वहां उनमे कैसे
लहलह कर हँसते हैं फसल
तेरे कर ही है युग-भाग्य
चल बढ़कर दे तू उसे बदल
फेहरिस्त बनाना छोड़ दे तू
ले शपथ रहे जो सदा अटल
सोचो जननी पर क्या गुज़रे
सुत उसका ले जब उसको छल

शिला को देख क्यों घबराता है
उठा छेनी उसे तराश के देख
उभार दे उसपर ऐसी आकृति
समय थके नहीं लिखते उसपर लेख
अरे ओ मूढ़! क्या देख रहा है उधर
इधर डाल दृष्टि बिना निकाले मीन-मेख
लगा मत अपने पर मिथ्या का दाग
जिसे कहा था होगा नहीं प्रतीच्य-लाग
वही माँ खड़ी है अब भी देहरी पर
कि कब तुम आकर उसके अंक भर जाओ
और बिना धाक-लाज के उसकी गोद पसर जाओ
अरे ओ जानेवाले! ना कर अनसुनी
जब संसार देगा तुम्हे धिक्कार
तब अकेली वही माँ ही होगी
जो खुली रक्खेगी तेरे लिए द्वार
बिना देखे कि तू कितना हरा है
खोटा हो गया या अब भी खरा है 
चंगा है या व्याधियों से घिरा है
सत्यकामी है या पातित्य से भरा है
और मैं तुमसे ये कहता हूँ बंधु मानकर
ताकि दे सको तुम संकीर्णता को स्फार
आत्मघात से समय रहते तुम जाओ चेत
तथा त्याग दो अपना ये अपसार
क्योंकि माधवी-लताओं से जो मिलेगा व्रण
कठिन होगा बहुत उसका उपचार  
इसीलिए शान्ति ला अपने चित्त में
और चाँद तारों से पृथक देख दृगवृत्त में
फिर चल मेरे साथ वापस अपनी मिटटी में
जहाँ तू भाषण भी कर सके और भजन भी
मुक्त हो कर नीरद-नाद सा गर्जन भी 
कल्पित-‘कुसुम’ के लोभ का संवरण भी

चल, चल कि
बहुत हुई विलास की कहानियाँ
चल, चल कि
बहुत हुई तुम्हारी नादानियां
चल, चल कि
तू स्वयं ही बन जा तक्षक
चल, चल कि
माँ का आँचल ही सबसे बड़ा रक्षक
चल चल कि 
वो नहीं मान सकती तुझे मृत
चल चल कि
इस युग का इतिहास हो तुम्हारे कृत

इसीलिए बंधु! त्याग अपना क्लीवत्व
फेंक अपना मोटा काला चश्मा
प्रशांत, अटलांटिक या लाल सागर में
देख तेनजिंग और हिलेरी की दिलेरी
अभी नहीं हुई कोई देरी
प्रण करो! रेत में फूल खिला सकता हूँ   
हाँ! बहुत कर सकता हूँ मैं

(निहार रंजन, सेंट्रल, २० अक्टूबर २०१३)


मीन-मेख निकालना – बारीकी से अच्छा-बुरा ढूँढना 

Sunday, October 20, 2013

हाँ! यही कर सकता हूँ मैं

तंत्र के तंग, गंदे रास्तों से खीझाये  
असंख्य उद्दांत स्वरों को स्वयं में समाये  
यहाँ-वहाँ, आग लगे शब्दों की
भादो जैसी बरसात कर सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं

काले मोटे चश्मे से
एक बुद्धिजीवी सा झाँककर
यहाँ की सड़न, वहाँ की गलन का
पूरे माहौल के दमघोंटू घुटन का
सजीव चित्र दिखा सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं

विकट समस्याओं की
लम्बी फेहरिस्त बना सकता हूँ
उससे अगली सुबह तक निकलने की
सैकड़ों युक्तियाँ सुझा सकता हूँ
और मिनट भर में अपनी जीभ से
आइसक्रीम गला सकता हूँ  
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं

क्योंकि मुझे पता है
युक्तियाँ सुझाना आसान है
लम्बी फेहरिस्त बनाना आसान है
या न्यूज चैनल के किसी सत्र में
अ-सांत वितंडा और भी आसान है
लेकिन उन्ही ‘गन्दी गलियों’ को
वापस लौट कर, साफ़ करना
बहुत चुनौती भरा अभियान है

क्योंकि साफ़ करते करते
बहते पसीने के साथ फिसल जाएगा
मेरा मोटा काला बुद्धिजीवी चश्मा
जिसे ढूँढते-ढूँढते कीचड़ से लथ-पथ हो
खो जायेगी मेरी बुद्धिजीवी पहचान
नाहक मुश्किल में होंगे मेरे प्राण
...नहीं, नहीं.....
मैं बस आदर्श भाषण कर सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं

यही कर सकता हूँ क्योंकि
राजनीति गन्दी है बहुत
और उसे साफ़ करने का
साहस नहीं है मुझमे
अपनी सुरक्षित नौकरी छोड़कर
अपना सुरक्षित भविष्य छोड़कर
प्रगतिशील बुद्धिजीवी की पहचान छोड़कर
लौट जाऊं प्रक्षालन के महाभियान में
..नहीं, नहीं .....
क्योंकि मैं कोई कृष्ण नहीं जो
पूतना के पृथुल जांघों पर जा
उसका विषघट उसी में उड़ेल दूं  
..नहीं, नहीं .....
ऐसा बलिदान नहीं कर सकता हूँ
बस युक्तियाँ सुझा सकता हूँ  
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं

मुझे मत सुनाओ त्याग की कहानियाँ
या मेरे लिए सब कुछ लुटा चुकी
मेरी ही जननी का हाल
कह दो उसे, मान ले मुझे मृत
क्योंकि उजालों के इन राहों से
वापस तंग गलियों में
नहीं लौट सकता मैं
मुद्रा के सेज पर पड़ा
क्रोएशिया से कोलोम्बिया तक की
माधवी-लताओं का सुखद आलिंगन
नहीं छोड़ सकता मैं
पर जब-तब, इधर-उधर
राष्ट्र-क्रांति की बातें जरूर कर सकता हूँ
हाँ! यही कर सकता हूँ मैं
सच मानो! जरूर कर सकता हूँ मैं

(निहार रंजन, सेंट्रल, २० अक्टूबर २०१३)

Monday, October 14, 2013

असंवाद

उलझा अपने भावों में, कुछ लिख नहीं पाऊँ
तुझसे प्राणित जो शब्द, उन्हें क्या तुम्हे सुनाऊँ
उचित नहीं है क्षण ये, ना मेरा राग मधुर 
उर के विजोर तान से फिर क्या बहलाऊं

आज नहीं मैं गा सकता हूँ
तुम ही गा दो मेरे गीत

चटु शब्द लिखना ये मेरी आदत नहीं आरंभ से  
कृपण कहा किसी ने, किसी ने कहा हूँ दंभ से
पर ज्ञात उन्हें क्या, बात जो अनुभूति की
रहता वो अव्यक्त ही, शब्दों में परिरंभ से  

मायावी परिरंभ से बचना
माया से होना भयभीत

नीरस सा हो, गर लिखूं उस डोर की मैं बात फिर  
सो चुप हूँ मैं, क्यों फिर वही, गीत गाऊँ, शब्द फेनूं
चीन्हे पथिक, चिन्हार पथ के, कुछ तो है, जो शांत है
पर शांत होने से कभी होती नहीं अप-ध्वांत वेणु 

मेरे मौन की नीरवता में  
आओ तुम भी जाओ रीत

या इसे समझो, कर रहा मैं प्रेम पुंजन 
जिसमे चुभकी तुम लगाती थक ना पाओ
और निकलकर उससे चाहे लाख छुपा लो
सस्मित मुख के रागारुण से सब कह जाओ
  
सच्चे बंधन हिलते नहीं समय से
असंवाद में चाहे दिन यूँ जाए बीत

(निहार रंजन, सेंट्रल, १३ अक्टूबर २०१३)

चुभकी- गोता
अप-ध्वांत वेणु- कर्कश बांसुरी 

Monday, October 7, 2013

और ये धुँआ धुँआ


अक्टूबर की गुनगुनाती धूप
लम्बी ‘ब्लू रिज’ पर्वत श्रृंखला
जलेबिया रास्तों की चुनौतियाँ
मुग्ध करती पहाड़ी हरियाली
और ये धुँआ धुँआ

ये कौन जल रहा पहाड़ो में?
किसके निशाँ है चट्टानों पर
किसके आंसुओं की धारा है वादियों में
जिससे उठ रहा है ये घना वाष्प
और ये धुँआ धुँआ

वादियों में गूंजती भूतहा आवाज़
चट्टानों से टकरा-टकरा व्याकुल है
असली घर की खोज में 
जहाँ कैद है उनकी वेदना-गाथा
और ये धुँआ धुँआ

वही वेदना गाथा जिसमे
जबरन घरों से घसीट उन्हें
दिखाया गया नए घर का रास्ता
बना आंसुओं में डूबा इतिहास (ट्रेल ऑफ़ टीयर्स)
और ये धुँआ धुँआ

मैं सिहरता हूँ ये सोच बस   
किसी निर्जन टापू पर भेज मुझे
कोई लगा दे आग मेरे गाँव
छोड़ जाए राखों में अस्तित्व  
और ये धुँआ धुँआ

कहने को बहुत कुछ है
लिखने को बहुत कुछ है
लेकिन मन कहता है   
क्या लिखूं यहाँ वहाँ
और ये धुँआ धुँआ


(निहार रंजन,  नॉक्सविल, ६ अक्टूबर २०१३) 

(नार्थ कैरोलिना और टेनेसी के सीमा के बीच स्मोकी माउंटेन्स में ६ अक्टूबर २०१३ की प्रभात बेला. २०० साल पहले तक यह इलाका और आस पास के राज्य अमेरिका के मूल निवासियों (रेड इंडियंस) का स्थल हुआ करता था. आज स्मोकी माउंटेन्स की पहचान पर्यटन से है. तस्वीर- निनाद प्रधान)      

Wednesday, October 2, 2013

कवि से

माना आपका कोमल ह्रदय है
संसार की सारी व्यथाओं का
आपके ही उर संचय है
कलम अनुक्षण विकल है
घृत के साथ उठती अग्निशिखा सी
प्रचंड है, प्रदीप्त है, निर्भय है
मगर ह्रदय में व्यथा की निधि लेकर
कहीं खो ना जाये जीवन के मधुर पल
अनवरत तलवार और बाण चलाते
चिर-तृषा में जीवन ना हो निष्फल
इसीलिए आप प्रेम रस से उर सिंचन करें   
व्यथा कीर्तन त्याग, प्रेम अभिनन्दन करें    

व्यथा की सच्चाई को मान लिया
विश्व की क्रूरता को भी जान लिया
दुनिया है स्वार्थ का गढ़, पहचान लिया
इसीलिए आपके कलम ने ये ठान लिया
कि लच्छेदार लिख-लिख कर 
दुनिया का अत्याचार बदल देंगे
नाव बदल देंगे, पतवार बदल देंगे
नाटक बदल देंगे, किरदार बदल देंगे
चाल बदल देंगे,  व्यवहार बदल देंगे
गलियों-गलियों से उठते हाहाकार बदल देंगे
शब्दों के हुंकार से सकल संसार बदल देंगे
मगर कवि! संसार कभी नहीं बदलता है
उसी धूप और छाँव बीच जीवन चलता है

आज की बात नहीं, युगों की लड़ाई है
मनुष्य ने कब सतत शान्ति पायी है
जलता ही रहता है मनुष्य हर युग  
हिंसा और प्रतिहिंसा के ज्वार में
निर्दोषों को अकारण संहार में
अनीतियों, कुरीतियों के व्योम विस्तार में
ढूंढता है प्रेम उस पालनहार में
कहते है जिसने दुनिया बसाई है
अपनी व्यथा सबने उसे सुनाई है
फिर भी हर युग में वही लड़ाई है
कवि! ह्रदय व्यथित ना करो
अवसाद में रह मिलता बस क्रोध  
जिसका होता जब अनुबोध  
तुरावत निकल जाता है समय
हाथ मल-मल बस होता आत्म-क्षय


(निहार रंजन, सेंट्रल, २ अक्टूबर २०१३).

Thursday, September 26, 2013

दीया और घड़ा

अपनी लघुता की कुंठा से
अरे ओ दीपक! बढ़ा मत
निरर्थक व्यथा का भार

उसी मिटटी, हाथ से, तुम दोनों निर्माण हुआ
तपकर जब बाहर निकले, आकारों से पहचान हुआ
उसके भाग्य है शीतलता और तेरी नियति में तपना
लघु हो पर हीन नहीं, तुम क्या जानो अपनी रचना
वो तो ग्रीष्म भर प्रिय है, पर उसका सामर्थ्य नहीं
लौ से लौ जगा तम चीर जाये, जहाँ जाये वहीँ  

विस्मृत कर तपन
अरे ओ दीपक! कभी सोचो
क्यों रचता ऐसा कुम्भकार

आकारों के वश में नहीं, जो कहे, किसकी क्या क्षमता है  
रचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
पर देखो! तिमिर घिर मनुज, बस उसकी आस में रहता है
जो नहीं वृहत, है लघु,  तम लड़ता, रहता जलता है          


(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ सितम्बर २०१३) 

दो रूठी कविताओं में एक "लैलोनिहार ....." इस महीने के शुरुआत में लिखी थी और आज ये कविता आखिरकार एक आकार में पहुंची.  

Sunday, September 22, 2013

काश!

गुड़गुड़ाते हुक्कों के बीच
उठता धुएं का धुंध
उसे चीरती चिता की चिताग्नि
चेहरों पर उभरे प्रश्वाचक चिन्ह
कुछ पाषाण हृदयी जीवित अ-मानव
और ढेर सारे प्रश्न
जीवन के, जीवन-निर्माण के
समाज के, समाज-उत्थान के
संग-सारी के, तालिबान के.

अगर यही परिणति तो
नौ महीने का गर्भधारण क्यों
असह्य प्रसव वेदना क्यों
व्यर्थ स्तनपान क्यों
नक्तंदिन स्नेह स्नान क्यों
संतति की दो आँखों में
आशा का संसार क्यों
इस दानवी कृत्य के लिए
समय व्यर्थ करने की दरकार क्यों

उदहारण तो पुरखों पितामहों ने
दिखाए थे फांसी चढ़ाकर
मगर तुम्हे नहीं हो सका ज्ञात
जीवन से ऊपर नहीं होती जात
उदाहरण तो तुम बने  हो
इंसान से दानव में परिवर्तित होकर
अपने हाथों से अपने ‘प्राणों’ को मृत कर

वैध और अवैध की परिभाषाएं
बदलती है सीमायें, समय
विषय वासना केंद्र नहीं प्रेम का  
काश! समझ पाते तुम निर्दय
इस झूठी मूंछ से बहुत बड़े
होते हैं अपने तनयी-तनय
काश! माता और पिता जैसे शब्द
चीर दें तुम्हारे उस पाषाण ह्रदय को
और तुम्हारी आत्मा अटकी रहे
उत्सादी उद्विग्नता में
माता और पिता जैसे शब्द
पुनः सुनने के लिए     


(निहार रंजन, सेंट्रल, २२ सितम्बर २०१३)

Wednesday, September 18, 2013

आत्मरक्षा

गतिमान पथिक, सतत विकस्वर  
सुख-निरिच्छ, केन्द्रित लक्ष्य पर
किन्तु जगत के मोह बंधन से
पग-पग मिलते प्रलोभन से
मिथ्या के मोहक छद्म आवरण से
तन्द्राल सुमति के अलभ्य जागरण से
विवश है विकारों के सहज वरण से
मर्त्यलोकी पथों के सुलभ कंटकों पर
बचता हुआ, बिधता हुआ
चला जा रहा है, चला जा रहा है!   

त्वरण तेज होता हुआ जा रहा है
नहीं शेष क्षण जो विचिन्तित हो जीवन
करे मन मनन तो नयन हो विचक्षण
प्रलोभन से यंत्रण तो निश्चित क्षरण
हो अदना मनुज कोई इस धरा का
या अर्जित किया है जिसने तपोबल
श्रृंखलित मन भी हो जाता विश्रृंखल
लगा दौड़, कुपथ पर देता है चल
लोभ से लुभाते, लार गिराते
गिरा जा रहा है, गिरा जा रहा है!

कोई तुच्छ भेटों से ही प्रफुल्लित
कोई शरीर सुख को डोल जाता
कोई स्वर्ग लोलुप वृथा कर समय  
स्वप्नों में खोकर जीवन बिताता
जीवन पथ पर चलते पथिक को
जरूरी बहुत है ये जान जाना
जो इच्छित हो जीवन अवसाद के बिन
दंत-पिंजरे में जिह्वा का रखना ठिकाना
रहा है जो रक्षित इन्हीं कंटकों से
बढ़ा जा रहा है, बढ़ा जा रहा है ! 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १८ सितम्बर २०१३)