फिर हो मिलन मधुमास में
चहुँ ओर कुसुमित यह धरा
कण-कण है सुरभित रस भरा
क्यों जलो तुम भी विरह की
आग में
क्यों न कलियाँ और खिलें इस
बाग़ में
मैं ठहरा कब से आकुल, है गगन यह साक्षी
किस मधु में है मद इतना, जो
तुझमे मधुराक्षी
दो मिला साँसों को मेरी आज अपनी
साँस में
आ प्रिये फिर हो मिलन
मधुमास में
यूथिका के रस में डूबी ये
हवाएं मदभरी
हो शीतल सही पर अनल-सम लग रही
विटप बैठी कोयली छेड़कर यह मधुर तान
ह्रदय-जलधि के मध्य में
उठाती है तूफ़ान
है पूरित यहाँ कब से, हर
सुमन के कोष-मरंद
देखूं छवि तुम्हारी अम्लान,
करें शुरू प्रेम-द्वन्द
फैलाकर अपनी बाँहें बाँध लो तुम फाँस में
आ प्रिये फिर हो मिलन
मधुमास में
ये दूरियां कब तक प्रियवर,
क्यों रहे तृषित प्राण
क्यों ना गाओ प्रेमगान और
बांटो मधुर मुसक्यान
इस वसुधा पर प्रेम ही ला
सकती है वितामस
प्रेम ही वो ज्योत है जो
मिटा सके अमावस
हो चुकी है सांझ प्रियतम झींगुरों की सुन तुमुल
आ लुटा रसधार सारी जो समाये
हो विपुल
दो वचन चिर-मिलन का आदि, अंत,
विनाश में
आ प्रिये फिर हो मिलन
मधुमास में
(निहार रंजन, सेंट्रल,
८-१२-२०१२)
फोटो: यह चित्र मित्र डॉ मयंक मयूख साहब ने न्यू मेक्सिको के उद्यान में कुछ दिन पहले लिया था. यही चित्र इस कविता का मौजू भी है और कविता की आत्मा भी. यह कविता मित्र मयंक के नाम करता हूँ.
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