(वोयेजर द्वारा करीब ६ खरब किलोमीटर दूर से ली गयी पृथ्वी की तस्वीर)
पहचान
विस्तृत अंतरिक्ष के
एक दीप्त आकाशगंगा
में
कण भी नहीं, कण के
अंश जैसा
यही है पहचान अपनी
धरती की
और फिर इस वसुधा के
चौरासी लाख योनियों
में
एक हम हैं, सोचो अपनी पहचान!
वही पहचान जिसके लिए
हम आप आज खड़े है
अपने झंडों के
साथ
जोरदार आवाज़ के साथ
बिना सोचे एक पल
डायनासोर का क्या हुआ?
भारी भरकम डायनासोर
जो अपने समय में लड़ता
होगा
आपस में और तुच्छ
जीवों के साथ
लेकिन समय का चक्र
ढाल गया उसे मिटटी-पत्थर
के अन्दर
और साथ में उसकी पहचान
लगे हैं एक दूसरे को
परास्त करने
एक दूसरे के रास्तों
में गड्ढा खोदने
अपनी ज़िन्दगी खोकर,
पर-पीड़ा के लिए
ये जानते हुए कि हम
सबका
आखिरी ठिकाना एक है
वही ठिकाना जहाँ पर जीवाणु-विषाणु
ऑक्सीकरण-अवकरण साथ मिल
ढाल जाते हैं हमें एक सांचे में
जहाँ ना ख़म, ना जंघा,
न ग्रीवा
और पत्थर मिटटी के
दरम्यान
परतों में गुम होती है हमारी पहचान.
(निहार रंजन,
सेंट्रल, १६ मार्च २०१३)
बहुत गहन अभिव्यक्ति ..... अपने होने के एहसास से इंसान न जाने किस दंभ में जीता है ...
ReplyDeleteझंडाओं कि जगह झंडों कर लें ।
इस अपार पारावार में चेतना का एक लघुतम कण हैं हम और सबके साथ जुड़े हुए भी !
ReplyDeleteghamand se bhare huye hamare leaders aur udyogpatiyon ko yah kavita padhai jani chaihiye.
ReplyDeleteलेकिन हम आप होकर अनभिज्ञ
ReplyDeleteलगे हैं एक दूसरे को परास्त करने
एक दूसरे के रास्तों में गड्ढा खोदने
अपनी ज़िन्दगी खोकर, पर-पीड़ा के लिए
ये जानते हुए कि हम सबका
आखिरी ठिकाना एक है
सार्थक-गहन अभिव्यक्ति !!
आध्यात्मक बातें जल्दी समझ में नहीं आती ....
जब तक भौतिकता(ख़ुद के बुने मोह-जाल में)लिप्त रहते हैं
शुभकामनायें !!
बहुत प्रभावी ... इंसान है की फिर भी अहम को पाले हुए है ...
ReplyDeleteठिकाना पल भर का नहीं सामान जिंदगी भर का ...
प्रभावशाली, प्रेरक प्रस्तुति
ReplyDeleteगहन भाव लिए रचना...
ReplyDeleteऔर पत्थर मिटटी के दरम्यान
ReplyDeleteपरतों में गुम होती है हमारी पहचान----
सुंदर सृजन और प्रस्तुति
बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारें .
एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल ....
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteनिहर जी, सचमुच नगण्य है मानव पर अनंत भी वही है.कुछ भी नहीं या सब कुछ होना जो सीख ले वही मुक्त है..
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteपरम बोध की कविता -अच्छी लगी निहार !
ReplyDelete.....और इसी पहचान पर अनमोल जीवन करके कुर्बान , करते रहते हैं खुद पर गुमान ..
ReplyDeleteलेकिन हम आप होकर अनभिज्ञ
ReplyDeleteलगे हैं एक दूसरे को परास्त करने
एक दूसरे के रास्तों में गड्ढा खोदने
अपनी ज़िन्दगी खोकर, पर-पीड़ा के लिए
ये जानते हुए कि हम सबका
आखिरी ठिकाना एक है
जाने ऐसा क्यों है ...पर जीवन भर इस फेर में उलझे ही रहते हैं
Thought provoking! We are tiny in size as well in our thoughts. Good analogy of Dinosaurs.
ReplyDeleteAnd a nice new look of the blog. :)
ReplyDeleteशाश्वत सत्य से अभीभूत कराती सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteभाई रंजन जी ......आदमी का वजूद ही क्या है प्रकृति के आगे .....सब कुछ आभास कराती हुई रचना आँखे खोलने वाली है । आपको बहुत बहुत बधाई ।
ReplyDelete