अपनी लघुता की कुंठा से
अरे ओ दीपक! बढ़ा मत
निरर्थक व्यथा का भार
उसी मिटटी, हाथ से, तुम दोनों
निर्माण हुआ
तपकर जब बाहर निकले, आकारों
से पहचान हुआ
उसके भाग्य है शीतलता और
तेरी नियति में तपना
लघु हो पर हीन नहीं, तुम
क्या जानो अपनी रचना
वो तो ग्रीष्म भर प्रिय है, पर
उसका सामर्थ्य नहीं
लौ से लौ जगा तम चीर जाये,
जहाँ जाये वहीँ
विस्मृत कर तपन
अरे ओ दीपक! कभी सोचो
क्यों रचता ऐसा कुम्भकार
आकारों के वश में नहीं, जो
कहे, किसकी क्या क्षमता है
रचनेवाला ही जानता है, वो
किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और
किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म,
तय वही सभी का करता है
पर देखो! तिमिर घिर मनुज,
बस उसकी आस में रहता है
जो नहीं वृहत, है लघु, तम लड़ता, रहता जलता है
(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ सितम्बर २०१३)
दो रूठी कविताओं में एक "लैलोनिहार ....." इस महीने के शुरुआत में लिखी थी और आज ये कविता आखिरकार एक आकार में पहुंची.