ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी
तेरी चीख नहीं सुनी
हमने
पर घोर शोर है मन में
धधक उठी आज आग
हमारे हिस्से के हर
कण में
हो तुम मौजूद नहीं पर
तेरी ख़ामोशी कहती है
सबसे
मचेगा प्रलय भारतभूमि
पर
अगर जगो ना तुम अबसे
आ गया वक़्त है जब
हम खुद से करें तदबीर
और बदलें सबसे पहले
अपने समाज की तस्वीर
खोल दे बेड़ियाँ
बेटियों के पैर से,
दें हम उसके हाथ कलम
लिखने दे उसे खुद की
तकदीर,
मिटाने दे उसे खुद के
अलम
हम ना दें अब और उसके
गमज़ा-ओ-हुस्न की मिसाल
तंज़ न दें उसको बदलने को,
हम ही बदलें अपनी चाल
हमने माना की सारे बुजुर्ग
होंगे नहीं हमारे हमकदम
नदामत है हमारे ज़माने की,
करें अज़्म लड़ेंगे खुद हम
वो जो हर अपना घर में
मांगेगा दहेज़ गहने जेवर
अहद लो आज खुद उठके
तुम दिखाओगे चंगेजी-तेवर
ये शपथ लो ब्याह ना आये
कभी बेटी की शिक्षा की राह
उसको रुतबा-ओहदा पाने दो
जिसकी उसको मन में है चाह
दामिनी!
तुम जा चुकी हो उस मिटटी में
जहां हम भी एक रोज़ आयेंगे
काश! जो तुम न देख सकी
उस समाज की दास्ताँ सुनायेंगे
ये मत समझना तुम
व्यर्थ हुए तुम्हारे प्राण
तन्द्रासक्त भारतभूमि पर
जागेंगे जन एक नवविहान
खोल दी सबकी आँखें,
झकझोड़ दिया अन्तर भी
ज्योति थी तुम जीते
जी,
ज्योत हो तुम मर कर
भी
(निहार रंजन,
सेंट्रल, १-१२-२०१२)