“फूल” थी वो, फूल सी प्यारी
जब कुचली गयी थी वो बेचारी
जीवन में पहली उड़ान लेती वो
मगर
तभी किसी ने काट लिए थे
उसके पर
हंगामे तब उठे थे चहुँ ओर
कान खुले थे सरकार के सुनकर
शोर
कलम की ताकत को तब मैंने
जाना था
कलम है तलवार से भारी है,
मैंने माना था
बरसों बीते, और जब सब गया
है बदल
पर बलात आत्मा मर्दन क्यों
होता हर-पल
क्या गाँव की, क्या नगर की कथा
एक ही दानव ने मचाई है
व्यथा
कभी यौन-पिपासा, कभी
मर्दानगी का दंभ
क्यों औरत ही पिसती हर बार,
होती नंग
क्या भारत, क्या विदेश, किसने
समझा उसे समान
कहीं स्वतंत्रता से वंचित,
तो कहीं न करे मतदान
क्यों है आज़ाद देश में अब
तक वो शोषित
क्या है जो इन “दानवों” को
करता है पोषित
एक प्रश्न करता हूँ तो आते
है सौ सवाल
कैसे इन “दानवों” का है उन्नत भाल
कहाँ है काली, कहाँ है उसकी
कटार
क्यों ना अवतरित होकर करती
वो संहार
क्यों कर रही वो देर धरने
में रूप विकराल
बहुत असुर हो गए यहाँ, आ
सजा लो मुंडमाल
क्यों कर सदियों से बल प्रयोग
वस्तु समझ किया है स्त्रियों
का भोग
बहुत हो गया अब, कब तक
रहेगी वह निर्बल
बदल देने होंगे तंत्र, जो
बन सके वह सबल
ना बना उसे लाज की, ममता की
मिसाल
निकाल उसे परदे से, चलने दो
अपनी चाल
उतार हाथों से चूड़ियाँ, लो भुजाओं
में तलवार
“नामर्द” आये सामने तो, कर दो उसे पीठ पार
ताकि कभी फिर, कोई ना बने “अभागिनी”
फिर ना सहे कोई, जो सह रही
है दामिनी
(निहार रंजन, सेंट्रल,
२५-१२-२०१२)
फोटो: http://www.linda-goodman.com/ubb/Forum24/HTML/000907-11.html