काली बातें
रात है निस्तब्ध
और मैं अकेला चला जा
रहा हूँ
ना कोई मंजिल है
और न वजह
बस चलना है इसलिए
चलता हूँ
रात गहरी है, हैं घने
घन
और उनका डरावना स्तनन
लेकिन मुझे चलना है...
भला मिटटी से दूर
कहाँ तक, कब तक
एक जननी है, तेरा भी,
मेरा भी
कब तक इससे दूर
भागोगे
इसलिए चलता ही जाता
हूँ
क्योंकि आज रात बहुत
कारी है
आज रात बहुत प्यारी
है
कारा मम अति प्यारा ..
कारे मेघ हो या तेरी
आँखें
डरता नहीं देख मौत का
कारा-स्वप्न
पर डर जाता हूँ उस काले
लकीर से
जो तुम्हारे नैन छोड़
जाते है, कमबख्त!!
सारे काजल ले जाते है
वो स्याह अश्रु
पर तुम कहती हो कि
अश्रु निकले तो अच्छा है
खुल के कह दो ना आज..
मेरा विप्रलंभ है
मुझे पता है तुम्हारा
गला रुंध जाएगा
क्योंकि आजतक तुमने
दोष ही लिया
तुम न कह पाओगी मुझसे
दिल का हाल
तुम ना कह पाओगी
मुझसे, “मैं निरा-व्याल”
और वही चुप्पी जोर से
बोलती है मेरे मन
साल दर साल, दर-ब-दर,
दिवस-निशि-शर्वर
और मैं चलता जाता हूँ
“स्फीत” उर, स्पन्न मान लिए
स्याह रातों से तेरी आँखों का काजल माँगने
वात्या से अविचलित,
मेघ के हुंकार से निडर
उस चुप्पी भरी आखिरी
मुलाकात के शब्द तलाशता
जिसमे मैंने देखे थे
अश्रुपूर्ण विस्फारित तेरे नयन.
कारे नयन!! जिसका काजल
इसी मिटटी ने चुरा रखा है .
चलो मिटटी से मांग
लूँगा ........!!
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३ )
लाजवाब प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति निहार भाई। हिंदी के कुछ शब्द नए थे मेरे लिए :)
ReplyDeleteसुन्दर, भावपूर्ण अभिव्यक्ति ,,,
ReplyDeleteसादर .
इस घनी अँधेरी रात में भी प्रकाश का एक दीया काफी है .....सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteसुन्दर भाव-प्रवाह..बहा ले गयी..
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