Saturday, October 27, 2012

कुछ अशआर




नवा-ए-दिल

एक कल बीत चुका, एक कल आने को है
सुनो मेरे अहबाब, आज कुछ बताने को है   

किस-किस से बचता रहूँ सफ़र-ए-हयात में
हर किसी को आता दामन में दाग लगाने को है 

आबरू के खातिर ही गई मिटटी में सीता
नहीं तो क्या मज़ा धरती में समाने को है 

ये तुम भी जानते हो, जुल्मी है बड़ी ये दुनिया
बहुत लोग यहाँ नवा-ए-दिल को दबाने को हैं

डूबकर ही है मरना, तो आऊँगा तेरे दर पर
दिल चाहता तेरी आँखों में डूब जाने को है

बाँकपन भी , हया भी, तल्खी भी,  तेवर भी
कौन कहता है तुम्हे आता बस शर्माने को है

चश्म-पोशी नहीं की मैंने, बस दिल की सुनी
चश्म-ए-पुर-आब में क्या और दिखाने को है

बाज़ार से ले आऊँ, जो हो शिकस्ता आईना
है यहाँ कुछ जो शिकस्ता-दिल बचाने को है?

हस्त-ओ-बूद के हवादिस भूलकर बढ़ो आगे
ज़िन्दगी है तो  कई सितम आज़माने को है

गिर गए गर आप, खुद ही उठ संभलना है
वरना ये तो कहिये, क्या फर्क जमाने को है

बाद-ए-सबा, बाद-ए-समूम, बाद-ए-तुंद सब मिले
चले अब कोई हवा, क्या फर्क दिल-ए-बेगाने को है

सूख चुका है कब का, खौल कर रगों में खून
जमे अश्क आँखों में, नहीं कुछ और बहाने को है

लगी आग तो मिला नहीं कोई जो बुझाये उसे
हाँ मिले सौ जिन्हें आता आग भड़काने को है

कई बस्तियाँ जलायीं, कई इंसान भी जलाये
ओ सिरफिरों बताओ, क्या और जलाने को है

आये नहीं फिर से लौटकर जो गए बलम छोड़ गाँव
क्या ज़िंदगी वो, जिसमे ना कुछ रूठने मनाने को है

दूर तक  उठते हुए  धुएँ में दिखता नहीं मेरा गाँव
हद ये कि सिमरिया घाट पर ना गंगा नहाने को है

चाहता हूँ भूल जाऊँ सदा माज़ी के सारे दिन
करू क्या उस पैकाँ का जो दर्द जगाने को है

हुआ कब से नाशाद मेरा मन, बरबाद मेरा दिल है
दूर रहो अगर तमन्ना मेरे दिल में घर बसाने  को है


उन लोगों से ग़म है, जो सामने मीठा, पीछे और
अच्छा है तोड़ दो वो रिश्ते जो बस निभाने को है

दौलत भी गई, ताकत भी गई, रानाई और बीनाई भी
बिस्तर-ए-मर्ग पर लेटा हूँ, कोई कंधा बढ़ाने को है ?

याद जब-जब आती है अपने  गाँव में बचपन की
तसव्वुर में  लगता  कोई शोला भड़काने को है

चाहत इसकी नहीं मुझको, दराज़ उम्र मिले
चाहत हर लम्हों में ज़िंदगी बिताने  की है 

(निहार रंजन , सेंट्रल, २४-९-२०१२)

अहबाब- दोस्त 


सफ़र-ए- हयात = जीवन का सफ़र 

तल्खी = कड़वाहट 


चश्म-पोशी = निगाहे फेर लेना (यानि जान बूझ कर अनजानी करना )


चश्म-ए-पुर-आब = आँसूं भरे नयन 

शिकस्ता दिल = टूटा हुआ दिल 


हस्त-ओ-बूद = भूत और वर्तमान 


हवादिस = हादसा


बाद-ए-सबा = प्रात:कालीन हवा 


बाद-ए-समूम = लू के समय वाली हवा 


बाद-ए-तुन्द = आँधियों वाली हवा 


माज़ी = भूत, गुज़रा वक़्त 


पैकाँ = तीर की नोंक 


सिमरिया घाट = मेरे गाँव से गंगा नदी का सबसे करीब घाट 


नाशाद = अप्रसन्न 

रानाई = सुन्दरता 


बीनाई = आँखों की रौशनी


बिस्तर-ए-मर्ग = मौत की सेज

 
तसव्वुर = खयाल


दराज़ = लंबी

Friday, October 26, 2012

समय बड़ा बलवान


माज़ूर

लाख बहलाता हूँ दिल को, लेकिन  बहल पाता नहीं
बना पीर का सागर ह्रदय, अब कुछ मुझे भाता नहीं 

रौशनी ही रौशनी चारों तरफ फैली हुई है क्षितिज में 
लेकिन अंधेरों के नगर की कैद से निकला जाता नहीं

रह रह के चिंगारियाँ फूटकर शोले मन में भड़काती है
करो लाख जतन, किसी का गुजरा वक़्त आता नहीं    

विद्रोह की हुँकार उठाओ, या क्रांति  की लौ जलाओ
कुछ मतलबपरस्त है जिन्हें बस बात समझाता नहीं

चारों तरफ यही नज़ारे हैं, कहीं बम कहीं बारूद
है कौन बशर इस दुनिया में जिसे वक़्त सताता नहीं

(निहार रंजन, सेंट्रल, १४-७-२०१२) 


Thursday, October 11, 2012

भागलपुर के ज़ख्म



जब कभी डूब जाता हूँ माज़ी में, तसव्वुर में
याद करता हूँ वो क़त्ल-ओ-खूँ भागलपुर में

सैकड़ों लाशें बस एक ही करती थी बयाँ
मजहबों की आड़ में फिर क़त्ल हो गया इंसान

खून से पाटी गयी थी गंगा की जमीन
खुद गंगा को भी अब तक होता ना यकीन

जलती चिताओं  से बस एक सदा आती थी
सिरफिरों फिर ना करो क़त्ल कोई, कह जाती थी  

ये जो हैं आग लगाने वाले वो चले जायेंगे
घर बना कर भी हम ताउम्र जले जायेंगे

ये ज़मीं अपनी है हमें साथ ही रहना होगा
बला आएगी हमपर तो साथ ही सहना होगा

देखो माज़ी की हक़ीक़त, अमन कहाँ मिला है
हाँ उभरे है हिमालय नफरत के, जब तेग चला है

कोई सीखता नहीं गुज़रे हुए हादसों की हक़ीक़त से
खून से कभी हमें मिलता नहीं निजात मुसीबत से 

रंग-ओ–मज़हब हो अलग पर खून तो ठहरा खून
मज़हब की जीत नहीं होती जब सर चढ़ता जूनून 

जब कभी फिर से ये जूनून देखेगी दुनिया
खोएगा असलम अब्बा, खोएगी बापू मुनिया

ना मिला है कभी सुकून बढ़ा के नफरत को
फिर भी क्यों दूर है इंसान करने उल्फत को

काश उस दिन को होश में सकूँ निहार
जब दहर के हर बाग़ में आई हो बहार  

(निहार रंजन, सेंट्रल,  २-१०-२०१२ ) 

Wednesday, October 3, 2012

कैसे कह दूँ भारत महान ?




इस कविता को पोस्ट करने से पहले यह बता दूँ की अपनी मिट्टी के कण-कण से मुझे बेहद प्यार है. यह देख कर बहुत अच्छा अनुभव होता है कि देश विकासरत है. हाँ कुछ ऐसी समस्याएँ जरूर हैं जिन्हें जिनपर सबको ध्यान देने की ज़रुरत है ताकि हर मायने में अपने देश को महान कहा जा सके. जो बातें अपने देश के बारे में  महान हैं उस पर सवाल नहीं है  यहाँ. ना ही वो कम होने वाले हैं. सवाल है यहाँ उन बातों पर जिनके बारे कदम उठाने की ज़रुरत है.


कैसे कह दूँ भारत महान?


जहाँ आज भी मर जाती बेटी
जीवन में आने से  पहले 
होती कलंकित वो जननी
कुलदीपक जो ना जन ले
हर क्षण वह फिर जलती है
क्या है मुझे इसका अभिमान?
कैसे कह दूँ भारत महान?

जहाँ आज भी  वर्ण-विभेद 
एक सामाजिक रोग है
छुआछूत का दंश सह रहे
अब भी करोड़ो लोग हैं
जब तक ना हो इन रोगों का
एक व्यापक समाधान
कैसे कह दूँ भारत महान?

 जहाँ आज भी एक अदना सा जन
पिसता अफसर बेईमानों से
हो जाती दफ़न जिनकी पीड़ा  
कुछ अखबारी हंगामों में  
और जंग कानूनी लड़ते 
हो जाते वो निष्प्राण
कैसे कह दूँ भारत महान?

जहां है अब भी अबला नारी
जिसका शोभा है लाचारी  
धर्म, अशिक्षा से बंधीं
अब भी कैद है वो बेचारी
वो बिना बताये दर्द-ए-दिल
मर जाती सीकर जुबान
कैसे कह दूँ भारत महान?

जहाँ आज भी  लड़ते है कुछ लोग
अपनी मज़हब की शान पर
और रह रह सुलगा देते हैं 
घर एक-दूसरे का जान कर
फिर बहती है खून की नदियाँ
जिसमे आखिर मरता है “इंसान”
कैसे कह दूँ भारत महान?

जहाँ आज भी स्तनों का उभार
लड़की  को औरत बनाती है
और गुड़िया के संग संग
एक बच्चा भी दे जाती है
फिर साल बीसवां लगते ही
विधवा होकर होता उनका बलिदान*
कैसे कह दूँ भारत महान?

-निहार रंजन (१५-७-२०१२)

* एक सच्ची कथा व्यथा की जिससे मैं अवगत हुआ दो तीन महीने पहले. एक बच्ची जो १५ साल की उम्र में पत्नी बनती है, १७ साल की उम्र में माँ और २०वाँ साल आते आते विधवा. फिर उसका जीवन ऐसे समाज में गुजरना है जहाँ पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है.


Photo Courtesy: http://www.punjabigraphics.com/pg/india/page/13/

Sunday, September 23, 2012

ढूँढता हूँ मैं किनारा


ढूँढता हूँ मैं किनारा
है अथाह सरिता,
तेज  प्रवाह है
शूलों से भरी
अपनी  राह है
चाहता हूँ एक तिनके का सहारा
ढूँढता हूँ मैं किनारा

है दुनिया निर्मम
रक्त की प्यासी है
इसलिए दुनिया में
व्याप्त उदासी है
थक चुका हूँ देखकर यह नज़ारा
ढूँढता हूँ मैं किनारा

है कांटो  के नगर में  
फूलों का अरमान
तम-आसक्त है रजनी
कब  होगा विहान 
बारूद हूँ , मांगता हूँ एक शरारा
ढूँढता हूँ मैं किनारा

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३०-७-२०१२)

Thursday, September 13, 2012

शाम से सुबह तक

हिंदी दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है करीब महीने भर पहले लिखी मेरी यह कविता-

शाम से सुबह तक

रक्तिम किरणें पश्चिम की 
हो गईं निस्तेज 
कह रही चिड़ियों से अब 
चलो सजाओ सेज 

होता दिन का अवसान देखकर 

चली चिरैया नीड़
इससे पहले कि अन्धकार
दे उसके पथ को चीर

नीड़ पहुँच कर उसने देखा
बदला क्षितिज का ढंग
और धरा पर नीचे
उछलते गाते कीट-पतंग

हो गया स्तब्ध जगत
रात हो गयी और अंधियारी
नभ के तारे पहरे देते
आयी निशाचर प्रहर की बारी

फिर फूटी पूरब से किरणें
रोशन हो गयी सारी दिशाएं
आओ निकलें नीड़ से
एक उड़ान फिर से भर आयें.



(निहार रंजन, सेंट्रल, ३-८-२०१२)

Wednesday, August 29, 2012


ज़मीन ज़ुमाद, ना ज़ुमाद वक्त

वही फैला आकाश, वही चाँद, वही टिमकते तारे हैं
अब भी हीर है, राँझे हैं, और जमाने की दीवारें है

कही खापवाले, कही पिस्तौलवाले, कही त्रिशूलवाले
हर तरफ फिरती मेरी तलाश में प्यासी तलवारें हैं

मुद्दत से बदनाम हुए है जो चले है राह-ए-इश्क
ज़माने ने किये अक्सर गर्दिश में उनके सितारे हैं

दूर तक नज़र आते है बस अंधेरों के घने डेरे
पतझड़ तो आ जाता है, बस आती नहीं बहारें हैं

मैं क्यों  भागता फिरूं ज़माने की नज़रों से दूर
बस इसलिए कि मुहब्बत में अपना दिल हारे हैं

(निहार रंजन २९-८-२०१२)

Saturday, August 11, 2012

मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ


मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ
एक दिन जब इस धरा पर
प्यार की कलियाँ खिलेंगी
और घृणा की दीवारें 
जड़ से हिलकर गिरेंगी
धर्म जात के नाम पर
रक्त सरिता  न बहेंगी

मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ!

एक दिन जब सबके मुंह
हो  दो वक्त की रोटी
बीते ना किसी की जिंदगी
फुटपाथ पर सोती सोती
सबके तन  ढकने को हो 
कुर्ता, साड़ी और धोती

मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ!

~ निहार रंजन (२-८-२०१२)

Tuesday, August 7, 2012

कोसी मैया? (Mother Kosi ?)


निर्लज्ज

देखा सदियों से हमने
तेरा विकराल स्वरुप
जो थी तुझमे पहले
वैसी अब भी  भूख

चाँद सितारे ना बदले
ना बदला तेरा ढंग
रक्त पिपासा ना बदली
ना बदला रूप ये नंग

क्यों ऐसी हो मतवाली
फिरती रहती हो यहाँ-वहाँ
तनय-तनयी हरती रहती हो
जाती हो तुम जहाँ-जहाँ

हे उन्मत्ता मुझे बताओ 
है कैसा ये प्रतिशोध
हो संहारिणी उसी की
जो  पले है तेरी गोद

एक एक तिनके जोड़कर
बने थे  जिसके घर
एक क्षण में ले गयी
तू सीधे अपने उदर

क्या मिलता है देख
उन्हें, हुए जो बेघरबार
किस से है तेरी लड़ाई
क्यों एकतरफा रार

कैसा तेरा पुत्रशोक यह
ये तो है पागलपन
देख तू अपनी गोद में
कहाँ घर, कहाँ वसन

क्या ज्ञात तुम्हे है
क्या होता माँ का धर्म
क्या ज्ञात तुम्हे है
क्या होता माँ का कर्म

जनने से नहीं होती,
माँ,  होती पालनहारा
इसलिए रण-मध्य में
कर्ण ने कुंती को दुत्कारा

कैसे कह दूं माँ  उसे
जो बदल बदल अपनी धारा
कभी पूरब, कभी पश्चिम
असंख्य जीवन को  संहारा

एक बात  कहता हूँ
हे चिरकुमारी, तन्वंगी
बहुत कुरूप लगती हो
जब नाचती हो तुम नंगी.

~निहार रंजन  ( १-८-२०१२ )

Sunday, August 5, 2012

मिटटी मेरी पुकारे


कितने बीते मनभावन सावन
कितनी जली होलिका, रावण
पर हाय  तपस्या में हर क्षण
विकल प्रतिपल अकुलाता मन
जीता  बस  यादों के सहारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे


जीवन की आपाधापी में
कैसे रखूँ खुद को हर्षित
कुसुम प्राप्ति की अभिलाषा में
तन अर्पित , जीवन अर्पित
कब तक अब यूँ मन मारें 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

कोसी धारा, मिथिला की धरा
जिस पर मेरा शैशव गुजरा
मिले राह में दुःख-सुख
बदला जीवन में हर कुछ
पर उस धरा के हम आज भी दुलारे
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

जब मन विचलित हो जाता है
मिटटी की याद सताती है
तज देता  प्राण जब तन को
बस मिटटी ही अपनाती है
अब छोड़ दुनिया के झंझट सारे 
आरे आरे आरे , मिटटी मेरी पुकारे 

(निहार रंजन ५-५-२०१२)

Wednesday, August 1, 2012

पहला पोस्ट

कुछ साल पहले ब्लॉग लिखना शुरू किया था. लेकिन ज्यादा लिख नहीं पाया. वक्त की पाबंदियां, कुछ दूसरी परिस्थियों की वजह से ज्यादा लिख नहीं पाया. आज नये ब्लॉग का प्रारंभ कर रहा हूँ. इसमें भी पूर्व की तरह मन की बातें होंगी. कुछ देश की , कुछ गाँव की , कुछ मिथिला की, कुछ कोसी की, कुछ संगीत की , गीत की  लेकिन जो  भी होंगी अपने दिल की बातें होंगी.