Tuesday, November 19, 2013

ओडियन

ओडियन यानि जर्मन शेफर्ड नस्ल का एक श्वान

ये अलग बात है
कि दुनिया मुझे ओडियन-प्रेम से जानती है
ये अलग बात है
कि अपनी पत्नी से किनारा किया है मैंने
ये अलग बात है
कि सूचित किया है मैंने पिता को
अनुमति से, मेरे गृह में प्रवेश के लिए
ये अलग बात है
कि ओडियन मेरा प्रेम भी है
और ओडियन मेरी मजबूरी भी

क्योंकि मैं लाचार हूँ
निजता के उल्लंघन से
और  शब्द-बाणों के 
अनवरत उत्पीड़न से
क्योंकि अपनी ज़िन्दगी का निर्धारक
मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ !
और शूल सी है बेधती मुझे
पत्नी से नोक-झोंक
या पिता का रोक-टोक
इसलिए ‘ओडियन’ से बहुत प्रेम है मुझे!
क्योंकि ओडियन कभी भी  
प्रश्न नहीं करता, शूल नहीं बेधता

बहुत प्रेम है क्योंकि
‘ओडियन’ ढोंगी साधु नहीं
जो समर्पण मांगता है मुझसे!
बल्कि, दिन भर एकांतवास करता है
और घर लौटते ही
मुझे समर्पित होने को मरता है
बहुत प्रेम है क्योंकि
वो प्रश्न नहीं करता
मेरी पत्नी की तरह
कि ‘एलिज़ाबेथ’ कौन है
क्यों मेरी संध्या-सहचरी है ?
क्यों प्याला लिए खड़ी है ?
बहुत प्यार है क्योंकि
उसे मुझे मेरे पिता की तरह
तपस्वी नहीं बनाना
और शांतिमय जीवन के
नुस्खे नहीं सिखाना

यही बात है मुझे खटकती
आज़ादी का अर्थ यह नहीं
कि बंध जाऊं पिता के आग्रह से
और उनके अंतर्मन के विचार
मुझमे पा जाएँ विस्तार
फिर अपने श्रम से अर्जित धन से
भरे यौवन में विरक्त होकर
इच्छा करूँ तपोबल की  
इच्छा करूँ क्षालित मनोमल की
जो वो अनजान इस बात से  
कि मैं विश्रांत हूँ
अपनी स्वाधीनता के सतत दमन से
कि एलिज़ाबेथ, उन्मुक्त विचरण के लिए  
क्रिस्टीना, गाढ़ालिंगन के लिए  
जूलिया, सर्वस्व अर्पण के लिए
नहीं करती है प्रश्न
इस आज़ाद प्रजातांत्रिक देश में
मेरी वैयक्तिक आज़ादी पर  
सिर्फ बंधन का नाम लेकर

इसीलिए मैंने किया है किनारा
अपने हितैषियों से
जो जीवन के इस पड़ाव पर
कर नहीं सकता समझौता
आज़ाद हवा में आज़ादी से
समर्पित नहीं हो सकता स्वयं
लेकिन मांगता हूँ समर्पण
अपनी आज़ादी के लिए
पत्नी से भी, पिता से भी
बिलकुल मेरे ओडियन जैसा
मांस की दो बोटियों के लिए
फकत दो बोटियों के लिए !

(निहार रंजन, सेंट्रल, १९ नवम्बर २०१३) 

Wednesday, November 13, 2013

मेरा गाँव

वहीँ   पर    खड़ा   है  भरा  मेरा गाँव
जहाँ  बहती   रहती  है  कोसी की धारा

यहाँ   देख    आया    वहाँ  देख आया
ना   जाने  कहाँ – कहाँ    देख   आया
अँधेरे   में   देखा,   उजाले   में  देखा
दिखा  ना  कहीं  पर   वहां  सा नज़ारा
आहा!  मेरा  गाँव,  वो  कोसी की धारा

मैं  जन्मा जहाँ  पर  गज़ब है वो धरती
जिसे  सोच  कर  ही बिजली  सी भरती
उसी  मिटटी  से मेरा  रग-रग  भरा है
उसी  मिटटी पर हूँ  मैं   फिरता  मारा  
आहा!  मेरा गाँव,  वो  कोसी  की धारा

चला था  सफ़र  पर कि  जग  देख लेंगे   
था  अनजान  जंगल   ही जंगल  मिलेंगे
था  अनजान इससे  मिलेगी  ना मोहलत
बस बाघों और व्यालों की   होगी सोहबत
बचने   उनसे    दिवस  से  निशा तक  
भागा  मैं  पूरब  से  पच्छिम दिशा तक
पर  बढती  रही  जंगलों  की  ये  सीमा
और  बढ़ते  गए   ये   वन   कोणधारी
उसी  वन में  मुझको  दिखे  कई  वानर
था  जिनको  नचाता   छुपा एक  मदारी
बहुत  मैंने   ढूँढा  मिले  नेक    हृदयी
पर जो  भी  मिला  वो  निकला शिकारी
यही  चल  रहा था की  सहसा  अचानक
झपट  मुझपे  आया था  एक हिंस्र चीता  
दबाया  था उसने  मेरी  ग्रीवा   दम  से  
बड़ा  ही  भयावह   क्षण  था, जो  बीता
दया भीख  माँगा, दिया  अपना   परिचय
‘मैं मिथिला का  बेटा, बहन  मेरी  सीता’    
मगर  यह    युक्ति  नहीं   काम  आई
तो  अपने   अंदर  के  बल  को जगाया
झटके   में  उसको   ज़मीं  पर गिराकर
उसके  चंगुल   से   मैं   निकल  आया   
आगे   बढ़ा   तो   मिली   ढेर  नदियाँ
कभी   तैर   आया,  कभी   बस निहारा
पर  मिल  ना   सका  कहीं  वो किनारा 
आहा!  मेरा  गाँव, वो  कोसी  की  धारा

वो  धरती   जहाँ  पर  कभी  बुद्ध  आये
फिर  आ    गए    लक्ष्मीनाथ   गोसाईं
तप  के   ताप   की  शक्ति से  जिनके
मेरे  गाँव   में  रहती  शान्ति  है  छाई    
वही    पास    रहती   है जागृत सतत
रौद्र-रुपी    शक्ति  की    माँ,  उग्रतारा
आहा!  मेरा   गाँव,  वो कोसी  की धारा
 
मुझे    इसकी   चिंता तनिक भी नहीं है
कहाँ  पर   बीतेगा   ये    मेरा  जीवन
हो   जंगल  या पर्वत  या  कोई मरुथल
हँसते गुज़ारूंगा    साँसों   का  यह  रण
मगर इसकी  चिंता  है  मुझको   सताती
कि    जब   भी मेरा  चरम-काल  आए
मेरे   बंधु-बांधव    मुझे     ठौर  देना
ये   काया  वहीँ  पर  लौटा  दी   जाए
अगर    पुनर्जन्म  हो     कभी   मेरा
तो   जन्मूँ, फिर   से  वहीँ  पर  दुबारा
आहा!  मेरा  गाँव, वो  कोसी  की  धारा


(निहार रंजन, सेंट्रल, ९ नवम्बर २०१३)

Thursday, November 7, 2013

चिरगर्भिणी

तुम्हारे विचारों से गर्भित
मैं चिरगर्भिणी, घूमती हूँ
घूमती ही रहूँगी
गर्भ लिये, सबके मन में
जगाऊँगी कौतुहल थम-थमकर
कि दुनिया की दृष्टि
ठिठक जाती है
हर कुंवारी गर्भवती पर
उसके गर्भ का संधान करने
और मैं अबोल अभिशप्ता
कह नहीं पाती जग से
है कौन इसका वप्ता

कह नहीं पाती क्योंकि
श्रृंखलित हूँ तुम्हारे शब्द-चातुर्य से
और विवश हूँ   
जो मुग्ध है सभी उसके माधुर्य से
कि तुम अपने दाप व संताप को
मृदित अभिलाषा को
हर्ष और निराशा को
प्रज्जवलित पिपासा को
विश्व-वेदना की संज्ञा देकर
आवृत कर जाते हो उनकी पहचान
और मैं गर्भित हो जाती हूँ
तुम्हारे विचार-बीज से

मैं कुँवारी हूँ क्योंकि
तुम्हारे विचार पौरुषहीन हैं
निर्धाक जग-सम्मुख होने से
या किसी इच्छित योजना से
शब्दावतंस के मोहक वीतंस में
फंसाना चाहते हो सबको
मेरे कुँवारीपन की आड़ में
इस भिज्ञता से
कि ऐसे गर्भो के चर्चे
अधरों से कर्ण-विवरों में
उत्सुकता से उतारे जाते हैं
उनके प्रणय-काल की
सरस गाथाएं सुनी जाती है
और शब्दालंकार भर भरकर
दूर देश तक सुनाई जाती है
     
मैं रूषित नहीं हूँ
तुम्हारे नेपथ्य वास से
या शंकित हूँ इस गर्भ पर
होने वाले उपहास से
जो भाग्य -शिष्टि का प्रबलत्व
मानकर रखूँगी दृढ तितिक्षा
और निभाऊंगी अपना धर्म
एक निर्भट कालांतरयायी बन
तुम्हारे मन  के उजले-काले
रंगीन स्मृतियों की रक्षिता बन
पूर्णगर्भा सी दिखूंगी
और सबकी आँखों में अटककर
मानसपटल पर सतत
एक पारंग चितेरिन सी
आकृतियाँ उभारा करुँगी
और उसी का अनुतोष पाकर
अपना समय गुज़ारा करुँगी

(निहार रंजन, सेंट्रल, ६ नवम्बर २०१३)

वप्ता- पिता
शब्दावतंस-शब्द-माला
वीतंस-जाल
तितिक्षा- धैर्यपूर्वक कष्ट सहने की क्षमता 

Thursday, October 31, 2013

यही हो याचना

आप सबों को दीवाली की हार्दिक शुभकामनायें!


शाप, प्रतिशाप के निरर्थक
अग्नि की झुलसाई
वेदना संतप्त लेकिन 
अम्लान मुखी हुलसाई
देवलोक की प्यारी
है धर्म निभाने आई
नदी, वृक्ष का रूप धर
करने को कुशलाई
नहीं जानती है वो
होती क्या कृपणाई
आओ हाथ पसारें
मांगे निर्मल मन
मांगे वो गुण उससे
धन्य करे जो जीवन
और याच लें उससे
बीते तिमिरमय रात
कालेय किल्विष पर
हो कुलिश का पात

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३१ अक्टूबर २०१३)

कालेय किल्विष- कलयुगी पाप

कुलिश- वज्र 

Friday, October 25, 2013

हाँ! बहुत कर सकता हूँ मैं

पिछले पोस्ट के  उस 'मैं'  से इस 'मैं' का संवाद  - 


‘नई सड़क’ की तंग वो गलियाँ
जिनके थे जर्जर दीवार
रत्न, मोतियाँ ले आया था
जहाँ से मैंने अनगिन बार
जाओ तभी तुम्हे मिल पाये
वहां जो है संचित भण्डार
किसे ज्ञात पंकिल राहों में
हो तेरा कल्पित संसार
वही तंत्र  है रहा पुकार
आ कर दो मुझको निर्विकार
मोटे चश्मे को दो उतार
देखो जिसका ये मांस, हाड़
वही जननी रही तुम्हे उचार
बदलो विचार! बदलो विचार! 

क्या भाग समस्या से
हो पाता उनका हल?
कर व्यर्थ नहीं अपने 
गठित बांहों का बल
संग्राम तुम्हारा है लड़
बिना किये यौवन निष्फल
रुकता क्यों है तू कायर सा
तेरी मिटटी, जा चला दे हल 
फिर देख वहां उनमे कैसे
लहलह कर हँसते हैं फसल
तेरे कर ही है युग-भाग्य
चल बढ़कर दे तू उसे बदल
फेहरिस्त बनाना छोड़ दे तू
ले शपथ रहे जो सदा अटल
सोचो जननी पर क्या गुज़रे
सुत उसका ले जब उसको छल

शिला को देख क्यों घबराता है
उठा छेनी उसे तराश के देख
उभार दे उसपर ऐसी आकृति
समय थके नहीं लिखते उसपर लेख
अरे ओ मूढ़! क्या देख रहा है उधर
इधर डाल दृष्टि बिना निकाले मीन-मेख
लगा मत अपने पर मिथ्या का दाग
जिसे कहा था होगा नहीं प्रतीच्य-लाग
वही माँ खड़ी है अब भी देहरी पर
कि कब तुम आकर उसके अंक भर जाओ
और बिना धाक-लाज के उसकी गोद पसर जाओ
अरे ओ जानेवाले! ना कर अनसुनी
जब संसार देगा तुम्हे धिक्कार
तब अकेली वही माँ ही होगी
जो खुली रक्खेगी तेरे लिए द्वार
बिना देखे कि तू कितना हरा है
खोटा हो गया या अब भी खरा है 
चंगा है या व्याधियों से घिरा है
सत्यकामी है या पातित्य से भरा है
और मैं तुमसे ये कहता हूँ बंधु मानकर
ताकि दे सको तुम संकीर्णता को स्फार
आत्मघात से समय रहते तुम जाओ चेत
तथा त्याग दो अपना ये अपसार
क्योंकि माधवी-लताओं से जो मिलेगा व्रण
कठिन होगा बहुत उसका उपचार  
इसीलिए शान्ति ला अपने चित्त में
और चाँद तारों से पृथक देख दृगवृत्त में
फिर चल मेरे साथ वापस अपनी मिटटी में
जहाँ तू भाषण भी कर सके और भजन भी
मुक्त हो कर नीरद-नाद सा गर्जन भी 
कल्पित-‘कुसुम’ के लोभ का संवरण भी

चल, चल कि
बहुत हुई विलास की कहानियाँ
चल, चल कि
बहुत हुई तुम्हारी नादानियां
चल, चल कि
तू स्वयं ही बन जा तक्षक
चल, चल कि
माँ का आँचल ही सबसे बड़ा रक्षक
चल चल कि 
वो नहीं मान सकती तुझे मृत
चल चल कि
इस युग का इतिहास हो तुम्हारे कृत

इसीलिए बंधु! त्याग अपना क्लीवत्व
फेंक अपना मोटा काला चश्मा
प्रशांत, अटलांटिक या लाल सागर में
देख तेनजिंग और हिलेरी की दिलेरी
अभी नहीं हुई कोई देरी
प्रण करो! रेत में फूल खिला सकता हूँ   
हाँ! बहुत कर सकता हूँ मैं

(निहार रंजन, सेंट्रल, २० अक्टूबर २०१३)


मीन-मेख निकालना – बारीकी से अच्छा-बुरा ढूँढना