Saturday, February 23, 2013
Sunday, February 17, 2013
कवि का सच
कवि का सच
लोग कहते हैं
कविता झूठी है
कल्पना का सागर है
जिसका यथार्थ से कुछ वास्ता नहीं
लोग कहते हैं
कवि कविता की आड़ में अपना भड़ास निकालते हैं
अपनी ज़िन्दगीके अँधेरे को छदम रूप देकर कविता का नाम देते है
अपनी असहायता को झूठे शब्द देकर हुंकार का नाम देते हैं
लोग कहते हैं
कविता ने झूठी आस दी है
उजालों के स्वप्न दिए है
दिल को खुश रहने का ख़याल दिया है, पर हकीकत?
लोग कहते हैं
कवि रसिया है
कविता के कंधे पर धनुष रख आखेट करता है
अपनी अतृप्त इच्छाओं को दुनिया के दर्द कहता है
लोग कहते हैं
कविता बिन दर्द हो ही नहीं सकती ,
रामायण देखो, "ग़ालिब" का दीवान देखो
"मजाज़" के टूटे अरमान देखो
लोग कहते हैं
कविता में शराब की बातें है
कविता में चाटुकारिता है
कविता हारे हुए (bunch of losers) पढ़ते है
लोग कहते हैं
कविता बेकार है
दुनिया में सब कुछ अच्छा है
बस नजरिये में फर्क की ज़रुरत है
लेकिन काश!!
कविता सब समझ पाते
सब यह समझ पाते कि
कवि ह्रदय का विस्तार निस्सीम है
इसलिए उसमे अपरिमित दर्द है
सब यह भी समझ पाते
जब दिल्ली में असुर नाचते है
तो कवि ह्रदय नुकीले जूतों से रौंदा जाता है
और दर्द की वेदना वैसी ही होती है जैसे किसी स्व का हादसा हो
हाँ दुनिया अच्छी है
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में उजाले है
आराम है, पैसे है और दुनिया बदलने का झूठा दंभ है
अब किसी को रोटी नहीं मिलती तो मेरी नींद क्यों जाए
लेकिन अपनी ज़िन्दगी के उजालों से हट के देखता है कौन
रंगीनियों की क्षणिकता और श्वेत श्याम के स्थायित्व को देखता है कौन
न्यूयॉर्क की गलियों में वक्षोभ से औरत की कीमत होते देख दुखता है कौन
वही कोई "शराबी", "पागल", "हारा हुआ" कवि
कौन कहता है दुनिया में दर्द नहीं है
लेकिन दर्द को देखने की लिए आँखें चाहिए
उनमे ख़ास ज्योति चाहिए
एक ख़ास जिगर चाहिए
और वो रौशनी तभी आती है
जब सब अपने स्वजनों की माया पृथक कर
अपने प्रियतम के आलिंगन से विमुक्त हो
उस असहाय को भी देखें जिसका आंत जल रहा है
वैसी ज़िन्दगी भी देखे
जिसे समय का चक्र एक पल में लूट लेता है
और एक पल में चहचहाती ज़िन्दगी में वीराना आ जाता है
सालों की समेटी ख़ुशी एक पल में काफूर होती है
लेकिन इसके लिए चाहिए मन, ह्रदय का विस्तार
दृगों को वही ख़ास ज्योति
और अपने स्वार्थ से इतर एक दुनिया का एहसास
जहां घोर अँधेरा पसरा है
और मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि
ना मुझे मुहब्बत ने ह्रदय चाक किया है
ना मेरी दुनिया में अँधेरे हैं
और ना ही शराब का मैं गुलाम हूँ
फिर भी दिल में दर्द है
क्योंकि दर्द जीवन का सच है, स्थायी या अल्पकालिक
क्योकि "दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त"
क्योंकि ह्रदय कवि का है, आहनी नहीं
(निहार रंजन, सेंट्रल, १७-२-२०१३ )
लोग कहते हैं
कविता झूठी है
कल्पना का सागर है
जिसका यथार्थ से कुछ वास्ता नहीं
लोग कहते हैं
कवि कविता की आड़ में अपना भड़ास निकालते हैं
अपनी ज़िन्दगीके अँधेरे को छदम रूप देकर कविता का नाम देते है
अपनी असहायता को झूठे शब्द देकर हुंकार का नाम देते हैं
लोग कहते हैं
कविता ने झूठी आस दी है
उजालों के स्वप्न दिए है
दिल को खुश रहने का ख़याल दिया है, पर हकीकत?
लोग कहते हैं
कवि रसिया है
कविता के कंधे पर धनुष रख आखेट करता है
अपनी अतृप्त इच्छाओं को दुनिया के दर्द कहता है
लोग कहते हैं
कविता बिन दर्द हो ही नहीं सकती ,
रामायण देखो, "ग़ालिब" का दीवान देखो
"मजाज़" के टूटे अरमान देखो
लोग कहते हैं
कविता में शराब की बातें है
कविता में चाटुकारिता है
कविता हारे हुए (bunch of losers) पढ़ते है
लोग कहते हैं
कविता बेकार है
दुनिया में सब कुछ अच्छा है
बस नजरिये में फर्क की ज़रुरत है
लेकिन काश!!
कविता सब समझ पाते
सब यह समझ पाते कि
कवि ह्रदय का विस्तार निस्सीम है
इसलिए उसमे अपरिमित दर्द है
सब यह भी समझ पाते
जब दिल्ली में असुर नाचते है
तो कवि ह्रदय नुकीले जूतों से रौंदा जाता है
और दर्द की वेदना वैसी ही होती है जैसे किसी स्व का हादसा हो
हाँ दुनिया अच्छी है
क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में उजाले है
आराम है, पैसे है और दुनिया बदलने का झूठा दंभ है
अब किसी को रोटी नहीं मिलती तो मेरी नींद क्यों जाए
लेकिन अपनी ज़िन्दगी के उजालों से हट के देखता है कौन
रंगीनियों की क्षणिकता और श्वेत श्याम के स्थायित्व को देखता है कौन
न्यूयॉर्क की गलियों में वक्षोभ से औरत की कीमत होते देख दुखता है कौन
वही कोई "शराबी", "पागल", "हारा हुआ" कवि
कौन कहता है दुनिया में दर्द नहीं है
लेकिन दर्द को देखने की लिए आँखें चाहिए
उनमे ख़ास ज्योति चाहिए
एक ख़ास जिगर चाहिए
और वो रौशनी तभी आती है
जब सब अपने स्वजनों की माया पृथक कर
अपने प्रियतम के आलिंगन से विमुक्त हो
उस असहाय को भी देखें जिसका आंत जल रहा है
वैसी ज़िन्दगी भी देखे
जिसे समय का चक्र एक पल में लूट लेता है
और एक पल में चहचहाती ज़िन्दगी में वीराना आ जाता है
सालों की समेटी ख़ुशी एक पल में काफूर होती है
लेकिन इसके लिए चाहिए मन, ह्रदय का विस्तार
दृगों को वही ख़ास ज्योति
और अपने स्वार्थ से इतर एक दुनिया का एहसास
जहां घोर अँधेरा पसरा है
और मैं यह इसलिए कहता हूँ क्योंकि
ना मुझे मुहब्बत ने ह्रदय चाक किया है
ना मेरी दुनिया में अँधेरे हैं
और ना ही शराब का मैं गुलाम हूँ
फिर भी दिल में दर्द है
क्योंकि दर्द जीवन का सच है, स्थायी या अल्पकालिक
क्योकि "दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त"
क्योंकि ह्रदय कवि का है, आहनी नहीं
(निहार रंजन, सेंट्रल, १७-२-२०१३ )
रात की बात
रात की बात
जब आसमाँ से गुम हो निशाँ आफताब के
हो माह में डूबा ज़माना, रात
को आना
पाओगी सितारों की झलक,
जुगनू भी मिलेंगे
उस पर यह मौसम सुहाना, रात
को आना
जो सादादिली तुझमे, शोखी
है, अदा है
हो जाए न ये जग दीवाना, रात
को आना
सौ लोग है हाजिर लिए खंज़र वो
अपने हाथ
उनसे जरा खुद को बचाना, रात को
आना
कुछ हर्फ़ हैं जो अब तलक
उतरे ना हलक से
आज गाऊँगा दिलकश तराना, रात
को आना
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१०-२०१२ )
Aftaab = Sun
Maah = Moon
Shokhi = Playfulness
Harf = Words
Halaq = Throat
Saturday, February 2, 2013
जवाब पत्थर का
पत्थर से गुफ्तगू
पत्थर से मैंने सबब पूछा
क्यों इतने कठोर हो
निष्ठुर हो, निर्दय हो
खलनायकी के पर्याय हो
कभी किसी के पाँव लगते हो
तो ज़ख्म
कभी किसी के सर लगते हो तो ज़ख्म
और उससे भी दिल न भरे तो
अंग-भंग
क्या मज़ा है उसमे कुछ बताओ
तो?
तुम दूर रहते हो तो सवाल
रहते हो
पास तुम्हारे आता हूँ तो
मूक रहते हो
तुम्हारे बीच आता हूँ तो
पीस डालते हो
तुझपे वार करता हूँ तो चिंगारियाँ
देते हो
आज मेरी चंपा भी कह उठी
मुझसे “संग-दिल”
अपनी बदनामी से कभी नफरत
नहीं हुई तुम्हे?
काश! लोग तुम्हें माशूका की
प्यारी उपमाओं में लाते
उनके घनेरी काकुलों के
फुदनों में तुम्हें बाँध देते
उनके आरिज़ों की दहक के मानिंद न होते गुलाब
पत्थर खिल उठते जब खिल उठते
उनके शबाब
मिसाल-ऐ-ज़माल भी देते लोग तो
तेरे ही नाम से
हो जाता दिल भी शादमाँ तेरे
ही नाम से
ये सब सुनकर पत्थर का मौन
गया टूट
और मुझे जवाब मिला-
"ताप और दाब से बनी है मेरी
ज़िन्दगी
मैं कैसे फूल बरसा दूँ
प्यारे!"
निहार रंजन, सेंट्रल,
(२-२-२०१३)
सबब = कारण
संग = पत्थर
काकुल= लम्बे बाल
आरिज़ = गाल
ज़माल = रौशनी
शादमाँ = प्रसन्न, आह्लादित
Saturday, January 26, 2013
क़द्र रौशनी की
क़द्र रौशनी की
जिन आँखों ने देखे थे
सपने चाँद सितारों के
वो जल-जल कर आज अग्नि
की धार बने हैं
सपने हों या तारें हों, अक्सर
टूटा ही करते हैं
हो क्यों विस्मित जो टूट आज वो अंगार बने हैं
अंगारों का काम है
जलना, जला देना, पर आशाएं
जो दीप जलें उनके तो
रौशन मन संसार बने हैं
संसार का नियम यही कुछ
निश्चित नहीं जग में
किस जीवन की बगिया
में अब तक बहार बने हैं
वो बहार कैसी बहार, बहती जिसमे आँधी गिरते ओले
उस नग्न बाग़ का है
क्या यश, जो बस खार बने हैं
ये खार ही है सच जीवन का, बंधुवर मान लो तुम
जो चला हँसते इसपर जीवन
में, उसकी ही रफ़्तार बने है
रफ़्तार में रहो रत लेकिन,
तुम यह मत भूलो मन
क़द्र रौशनी की हो सबको,
इसीलिए अन्धकार बने हैं
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२६-२०१३)
Sunday, January 20, 2013
पंथ निहारे रखना
पंथ निहारे रखना
छोड़ दो ताने बाने
भूल के राग पुराने
प्रेम सुधा की सरिता
आ जाओ बरसाने
प्रियतम दूर कहाँ हो
किस वन, प्रांतर में
सौ प्रश्न उमड़ रहे
हैं
उद्वेलित मेरे अंतर
में
जीवन एक नदी है
जिसमे भँवर हैं आते
जो खुद में समाकर
दूर हमें कर जाते
ये सच है जीवन का
लघु मिलन दीर्घ विहर
है
फिर भी है मन
आह्लादित
जब तक गूँजे तेरे स्वर हैं
देखा था जो सपना
वो सपना जीवित है
प्रीत के शीकर पीकर
प्रेम से मन प्लावित
है
___________________
___________________
....प्रिय पंथ बुहारे
रखना
हो देर मगर आऊँगा
वादा जो किया था मैंने
वो मैं जरूर
निभाऊंगा.
(निहार रंजन,
सेंट्रल, १-२०-२०१३)
काली बातें
काली बातें
रात है निस्तब्ध
और मैं अकेला चला जा
रहा हूँ
ना कोई मंजिल है
और न वजह
बस चलना है इसलिए
चलता हूँ
रात गहरी है, हैं घने
घन
और उनका डरावना स्तनन
लेकिन मुझे चलना है...
भला मिटटी से दूर
कहाँ तक, कब तक
एक जननी है, तेरा भी,
मेरा भी
कब तक इससे दूर
भागोगे
इसलिए चलता ही जाता
हूँ
क्योंकि आज रात बहुत
कारी है
आज रात बहुत प्यारी
है
कारा मम अति प्यारा ..
कारे मेघ हो या तेरी
आँखें
डरता नहीं देख मौत का
कारा-स्वप्न
पर डर जाता हूँ उस काले
लकीर से
जो तुम्हारे नैन छोड़
जाते है, कमबख्त!!
सारे काजल ले जाते है
वो स्याह अश्रु
पर तुम कहती हो कि
अश्रु निकले तो अच्छा है
खुल के कह दो ना आज..
मेरा विप्रलंभ है
मुझे पता है तुम्हारा
गला रुंध जाएगा
क्योंकि आजतक तुमने
दोष ही लिया
तुम न कह पाओगी मुझसे
दिल का हाल
तुम ना कह पाओगी
मुझसे, “मैं निरा-व्याल”
और वही चुप्पी जोर से
बोलती है मेरे मन
साल दर साल, दर-ब-दर,
दिवस-निशि-शर्वर
और मैं चलता जाता हूँ
“स्फीत” उर, स्पन्न मान लिए
स्याह रातों से तेरी आँखों का काजल माँगने
वात्या से अविचलित,
मेघ के हुंकार से निडर
उस चुप्पी भरी आखिरी
मुलाकात के शब्द तलाशता
जिसमे मैंने देखे थे
अश्रुपूर्ण विस्फारित तेरे नयन.
कारे नयन!! जिसका काजल
इसी मिटटी ने चुरा रखा है .
चलो मिटटी से मांग
लूँगा ........!!
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३ )
Saturday, January 12, 2013
ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी
ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी
तेरी चीख नहीं सुनी
हमने
पर घोर शोर है मन में
धधक उठी आज आग
हमारे हिस्से के हर
कण में
हो तुम मौजूद नहीं पर
तेरी ख़ामोशी कहती है
सबसे
मचेगा प्रलय भारतभूमि
पर
अगर जगो ना तुम अबसे
आ गया वक़्त है जब
हम खुद से करें तदबीर
और बदलें सबसे पहले
अपने समाज की तस्वीर
खोल दे बेड़ियाँ
बेटियों के पैर से,
दें हम उसके हाथ कलम
लिखने दे उसे खुद की
तकदीर,
मिटाने दे उसे खुद के
अलम
हम ना दें अब और उसके
गमज़ा-ओ-हुस्न की मिसाल
तंज़ न दें उसको बदलने को,
हम ही बदलें अपनी चाल
हमने माना की सारे बुजुर्ग
होंगे नहीं हमारे हमकदम
नदामत है हमारे ज़माने की,
करें अज़्म लड़ेंगे खुद हम
वो जो हर अपना घर में
मांगेगा दहेज़ गहने जेवर
अहद लो आज खुद उठके
तुम दिखाओगे चंगेजी-तेवर
ये शपथ लो ब्याह ना आये
कभी बेटी की शिक्षा की राह
उसको रुतबा-ओहदा पाने दो
जिसकी उसको मन में है चाह
दामिनी!
तुम जा चुकी हो उस मिटटी में
जहां हम भी एक रोज़ आयेंगे
काश! जो तुम न देख सकी
उस समाज की दास्ताँ सुनायेंगे
ये मत समझना तुम
व्यर्थ हुए तुम्हारे प्राण
तन्द्रासक्त भारतभूमि पर
जागेंगे जन एक नवविहान
खोल दी सबकी आँखें,
झकझोड़ दिया अन्तर भी
ज्योति थी तुम जीते
जी,
ज्योत हो तुम मर कर
भी
(निहार रंजन,
सेंट्रल, १-१२-२०१२)
Friday, January 4, 2013
जल! तेरी यही नियति है मन
जल! तेरी यही नियति है मन
जीवन पथ कुछ ऐसा ही है
चुभते ही रहेंगे नित्य शूल
हो सत्मार्गी पथिक तो भी
उठ ही जाते हैं स्वर-प्रतिकूल
छोड़ो उन
औरो की बातें
भर्त्सना करेंगे तेरे ही “स्वजन”
जल! तेरी यही नियति है मन
एक मृगतृष्णा है स्वर्णिम-कल
होंगे यही रवि-शशि-वायु-अनल
होंगे वही सब इस मही पर
शार्दूल, हंस, हिरणी चंचल
हम तुम न रहेंगे ये सच है
कई होंगे जरूर यहाँ रावण
जल! तेरी यही नियति है मन
हो श्वेत, श्याम, या भूरा
है पशु-प्रवृत्ति सबमे लक्षित
ब्रम्हांड नियम है भक्षण का
तारों को तारे करते भक्षित
है क्लेश बहुत इस दुनिया में
हासिल होगा बस सूनापन
जल! तेरी यही नियति है मन
त्रिज्या छोटी है प्रेम की
उसकी सीमा बस अपने तक
ऐसे में शान्ति की अभिलाषा
सीमित ही रहेगी सपने तक
मेरा हो सुधा, तेरा हो गरल
फिर किसे दिखे अश्रुमय आनन
जल! तेरी यही नियति है मन
है प्रेम सत्य, है प्रेम सतत
पर प्रेम खटकता सबके नयन
आलोकित ना हो प्रेम-पंथ
करते रहते उद्यम दुर्जन
आनंद-जलधि है प्रेमी मन
यह नहीं
जानता “दुर्योधन”
जल! तेरी यही नियति है मन
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१-२०१३)
Sunday, December 30, 2012
बगावत अपने घर
बगावत
अमानत भेंट हुई है आज
उस पाशविकता के
जो आई है समाज के
कण-कण में पसरे दानवता से
और जब से वह अर्ध्स्फुट पुष्प गई है लोक-पर
ऐसा लगता है मेरा ही
कोई हिस्सा गया है मर
एक हाहाकार मचा है
अपने अंतर में
कोई तेज नहीं है अब अपने
स्वर में
सोचता हूँ कौन थामेगा
उसके स्वजनों की बाँह
क्या हम दे ही सकते उन्हें
सिवाय कुछ सर्द आह
कायर हम क्योंकि जब हमारे
अपने ही सीटी बजाते है
कितनों को हम जोर से
तमाचा मार पाते हैं.
इसलिए बार-बार “राम”
नाम के रावण अवतरित हो पाते हैं
और हम बस इंडिया गेट और
गेटवे ऑफ़ इंडिया पर मोमबत्ती जलाते हैं
कितने हम है जो अपनी
शादी में दहेज़ को ठुकराते हैं
कितने है जो अपने घर
में कुरीतियों से टकराते है
कितने है हम जो पूछ पाते हैं अपने आप से
मेरी बहन भी क्यों न
पढ़ पायी, ये पूछते है बाप से
क्यों न होता है ये
आवेग और ये क्लेश
जब १६ साल की कोई पड़ोसी
धरती है दुल्हन का वेश
क्यों नहीं उठती है
वही प्रखर ज्वाला, होता ह्रदय विह्वल
जब घर की चाहरदीवारियों
में बेटी को लगाया जाता है साँकल
शिक्षा से कौशल ना
देकर, हम देते उसे चूल्हे का ज्ञान
और बेड़ियों में बंद कर
हम करते अबला का सम्मान
यही वजह है की राम
नाम का “रावण” जन्म से जानता है
दामिनी हो या मुन्नी,
उसे बेड़ियों में असहाय ही मानता है
ये भी जानता है, समाज
के पास नहीं है “ढाई किलो का हाथ”
समाज के पास है बस मोमबत्ती,
सजल-नयन, और बड़ी बड़ी बात
अमा दिवस में, अमा
निशा में, अमा ह्रदय में, अमा हर कण में
आँसू झूठे, आहें
झूठी, ये कविता झूठी, है झूठ भरा हर उस प्रण में
जब तक हम युवा, लेकर
दृढ निश्चय खा ले आज सौगंध
सबसे पहले अपने घर
में हम बदलेंगे कुरीतियों के ढंग
(निहार रंजन,
सेंट्रल, १२-३०-२०१२ )
Tuesday, December 25, 2012
आ सजा लो मुंडमाल
“फूल” थी वो, फूल सी प्यारी
जब कुचली गयी थी वो बेचारी
जीवन में पहली उड़ान लेती वो
मगर
तभी किसी ने काट लिए थे
उसके पर
हंगामे तब उठे थे चहुँ ओर
कान खुले थे सरकार के सुनकर
शोर
कलम की ताकत को तब मैंने
जाना था
कलम है तलवार से भारी है,
मैंने माना था
बरसों बीते, और जब सब गया
है बदल
पर बलात आत्मा मर्दन क्यों
होता हर-पल
क्या गाँव की, क्या नगर की कथा
एक ही दानव ने मचाई है
व्यथा
कभी यौन-पिपासा, कभी
मर्दानगी का दंभ
क्यों औरत ही पिसती हर बार,
होती नंग
क्या भारत, क्या विदेश, किसने
समझा उसे समान
कहीं स्वतंत्रता से वंचित,
तो कहीं न करे मतदान
क्यों है आज़ाद देश में अब
तक वो शोषित
क्या है जो इन “दानवों” को
करता है पोषित
एक प्रश्न करता हूँ तो आते
है सौ सवाल
कैसे इन “दानवों” का है उन्नत भाल
कहाँ है काली, कहाँ है उसकी
कटार
क्यों ना अवतरित होकर करती
वो संहार
क्यों कर रही वो देर धरने
में रूप विकराल
बहुत असुर हो गए यहाँ, आ
सजा लो मुंडमाल
क्यों कर सदियों से बल प्रयोग
वस्तु समझ किया है स्त्रियों
का भोग
बहुत हो गया अब, कब तक
रहेगी वह निर्बल
बदल देने होंगे तंत्र, जो
बन सके वह सबल
ना बना उसे लाज की, ममता की
मिसाल
निकाल उसे परदे से, चलने दो
अपनी चाल
उतार हाथों से चूड़ियाँ, लो भुजाओं
में तलवार
“नामर्द” आये सामने तो, कर दो उसे पीठ पार
ताकि कभी फिर, कोई ना बने “अभागिनी”
फिर ना सहे कोई, जो सह रही
है दामिनी
(निहार रंजन, सेंट्रल,
२५-१२-२०१२)
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