माज़ूर
लाख बहलाता हूँ दिल को, लेकिन बहल पाता नहीं
बना पीर का सागर ह्रदय, अब
कुछ मुझे भाता नहीं
रौशनी ही रौशनी चारों तरफ
फैली हुई है क्षितिज में
लेकिन अंधेरों के नगर की
कैद से निकला जाता नहीं
रह रह के चिंगारियाँ फूटकर
शोले मन में भड़काती है
करो लाख जतन, किसी का गुजरा
वक़्त आता नहीं
विद्रोह की हुँकार उठाओ, या
क्रांति की लौ जलाओ
कुछ मतलबपरस्त है जिन्हें
बस बात समझाता नहीं
चारों तरफ यही नज़ारे हैं,
कहीं बम कहीं बारूद
है कौन बशर इस दुनिया में
जिसे वक़्त सताता नहीं
(निहार रंजन, सेंट्रल, १४-७-२०१२)