Saturday, May 17, 2014

देहाती बातें

बहुत शान्ति है इस खटिये में
जिसमे धंस कर, धंस जाता हूँ अपने आप में
बहुत दूर, बहुत अंदर, आत्मिक-आलाप में
जिसमे न बल्ब है, न रौशनी है
न शोर है, न मांग है, न आपूर्ति है
ना विरोध है, ना स्वीकृति है
न स्वाप्तिक उपवन है, न अवचेतन है, न सच्ची जागृति है
है तो बस खाट के ये चार खूंटे
इनसे चिपटी हरे बांस की ये बत्तीयाँ
बत्तीयों में तनी यह मच्छरदानी
उसके ऊपर धेमरा बथान की नयी फूस का छत
और ये चार दीवारें टाट की
जिनसे गुजरती है कोसी की अलसायी यह आर्द्र हवा
कभी हिमालयी पवन की तरह
तो कभी तापगृह के वाष्प-कक्ष की तरह
और मैं मरा पड़ा सोचता हूँ
हिताची, कब आएगा यहाँ हितैषी बनकर?

इसी अभिलाषा के बीच देखता हूँ
टाट के यथार्थरूप को
जिसके फांको के बीच खड़ी है लालगंज वाली काकी
तुलसी को करती अर्पित जल-फूल
करती हुई अपनी शंकाओं को निर्मूल
सोचती मृत्यु बाद, वैतरणी न रहे अनिस्तीर्ण
जुड़ जाए, उसका यह ह्रदय विदीर्ण
लौट आये उसका लाल
जो साठ वर्षीय संसदीय घमासान के बाद भी
कर गया पलायन गाँव से    
टेलीविजन के विज्ञापनों में देखी
सपनों की दुनिया देखने  
टाट की इन दीवारों को,
कंक्रीट की दीवारों में परिवर्तित करने
भानस-घर, चिनबार को
‘मॉड्यूलर किचेन’ का रूप देने
और तभी विचिन्ता में डूब जाता हूँ मैं
कि ‘परमेष्टि’ की परिभाषा कितनी बदल गयी है
दो पीढ़ियों के बीच

बहुत बदल गयी है, बहुत बातें
इस झोपड़ी से उस संसद तक
पर बदली नहीं ठगी
उस लाल ने देश को ठगा
इस लाल ने लालगंज वाली काकी को
जो कर गया था प्रत्यागमन की बात
साल दो साल में, किसी भी हाल में
और जा फंसा है महानगर के नागरी व्यामोह में
खो गया है ज्यों किसी शिखर के आरोह में
या पिसती जिंदगी में ही देखता है मोक्ष
उस लाल का ठगा यह लाल  
फिर गाँव क्या, शहर क्या ?

यही कुछ बातें है, देहाती बातें  
जो खाट की शान्ति में मिलती है मुझे
और पार्श्व में द्वन्दरत पड़ोसियों के श्रीमुख से 
देसी गालियों की अनाहूत वर्षा
जिसकी जड़ में
खुरखुर झा नहीं है
सेहेंता गोबरपथनी नहीं है
कोई लाल ही है
लालगंज वाली काकी नहीं  


(निहार रंजन, समिट स्ट्रीट, १७ मई २०१४) 

13 comments:

  1. क्या पान है और क्या खोते जा रहे है .....अन्तर्द्वन्द ........सुन्दर......

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  2. क्या बात है, वाह बहुत सुंदर ।

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  3. वाह क्या बात है ... कितनी सार्थक सटीक हैं ये देहारती बातें ...

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  4. झिंगली खटिया में आत्मबोध होता है...बोधितत्व भी मिल सकता है...

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  5. निश्‍चय ही विभ्रमों में पड़े लालरूप नवयुवक पिसती जिन्‍दगी में ही मोक्ष ढूंढते हैं। देहात से संसद तक का चित्रण खटिया पर पड़े-पड़े बड़ा मूल्‍यवान होता है। दरकार इसे प्रकट करने की होती है। और आपने यह मनाकुलाहट बहुत अच्‍छे से उकेरी है।

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  6. या पिसती जिंदगी में ही देखता है मोक्ष ?

    जब हम गाँव में थे और बोरा लेकर स्कूल पढ़ने जाया करते थे, तब सब कुछ उसी में था. हसरतें पेड़ों की नींद तले सुकून तलाश लेती थी, पर अब तो.....
    बहुत सुन्दर पोस्ट निहारजी....

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  7. आपकी अकुलाहट सांझी है ।गांव क्या और शहर क्या हर काकी, काका ऐसे ही तरसते हैं लालों के प्रत्यागमन के लिये। बहुत सही सच्ची और सुंदर रचना।

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  8. गांव की स्थिति का बहुत ही सुन्दर चित्रण ..!!

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  9. क्या शब्द-संयोजन किया है आपने...बेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)

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  10. दृश्यमान हो उठा एक-एक निगूढ़ भाव.. अपनी भी बहुत सी बातें सहज रूप से जुड़ती गयी .. वर्तुलाकार होकर..

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  11. bahut sukshm bhav sunder badhai
    rachana

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  12. हे चिर गृह विरही !

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  13. हम सभी इसी भावभूमि के लिए तरस रहे हैं पर कहीं पहुँच नहीं रहे कैसी मजबूरी है

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