दस साल बाद
श्वेत, पीत और रक्त-वर्णी
कुसुमों से इतर
ढूंढता हूँ एक ‘’नील-कुसुम’’
तत्पर, सद्क्षण, गमसुम-गुमसुम
चंद्रमुखी! खोयी है
आकाशगंगाओं में
मैं खोया हूँ चन्द्र-शुआओं
में
और साथ है मेरे ह्रदय का यह
सीमाहीन मरुथल
जिसमे जब-तब छलक जाता है
मृगजल
दस साल बाद
अमीरी-गरीबी, हिंसा और प्रतिहिंसा
के नियत स्तंभों के बीच
अब भी ढूंढता हूँ एक
विचित्र आदमी मृत्युलोक के बीच
लेकिन सभी फंसे हैं स्वर्ग
की अप्सराओं में
और जीवन के नाम रह गया है
वही तंत्र
जिससे आखिरी दम तक उठापटक
चलती रहेगी
त्रिजटा खडग थामे रहेगी,
सीताएं दीप जलाएँगी
बाल्यखिल्य मंत्र
बुद्बुदायेंगे
हम आये थे, चले चले जाएंगे
दस साल बाद
हम फिर सोचेंगे अगले दस साल
बाद
हाथों में होगा जब नील-कुसुम
कम-कम तम होएगा गुम
मगर नील-कुसुम ‘’कहाँ किसे
मिला है’’
तब भी अँधेरे कमरे में होगा
एक दोमुंहा सांप
और हम ढूंढेंगे इसी बात का
पता
कि इतनी रंगीन रात, फिर भी
क्यों काली है
या फिर जीवन की चाल ही
निराली है
(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड
स्ट्रीट, १५ दिसम्बर २०१४)