कलम! धुंआ है, आग है, पानी
है
कलम! इसी से लिखनी तुझे
कहानी है
कलम! दुःख है, स्नेह है, निराशा
है, आशा है
कलम! सबके जीवन में इसी का
बासा है
कलम! दिल है कि बुझता है,
जलता है
कलम! दिल है कि पिघलता है,
मचलता है
कलम! देख लो क्या-क्या है
जीवन की अदा में
कलम! ढूंढो क्या छुपा है
सिंजन की सदा में
कलम! बहो कुछ ऐसे कि दिल तर
जाए
कलम! कहो कुछ ऐसे कि दिल भर
जाए
कलम! मिटटी का वही घिसा
पिटा खेल है
कलम! सबका बस यही दो दिन का
मेल है
कलम! क्यों न सबके हृदय में
रसोद्रेक हो
कलम! क्यों न सब ह्रदय नेक
हो
कलम! क्षणिक अहं से अधिक
क्या है जंघा की ताल में
कलम! उनसे कह दो बहुत चक्र है
समय की चाल में
कलम! कुछ कह दो उनसे जो त्यौरियां
चढाते है
कलम! कुछ कह दो उनसे जो गीत
नहीं गाते हैं
कलम! छेड़ ऐसी धुन कि दिल ठहर
जाये
कलम! कहो कुछ ऐसे कि दिल भर
जाए
कलम! कवि की कल्पना अमन ही
अमन है
कलम! कवि की चाह आग का शमन
है
कलम! कवि के शब्द कब से पुकारे
कलम! फिर भी क्यों उठती
रहती हैं तलवारें
कलम! पूरी दुनिया ही कवि का
ह्रदय हो
कलम! स्नेह की सरिता में
सबका विलय हो
कलम! कुंद हो जाए हर तेग की
धार
कलम! यह कवि स्वप्न कभी हो
साकार
कलम! किसी होंठ से कभी ना
शरर आए
कलम! कहो कुछ ऐसे कि दिल भर
जाए
कलम! ये धार है अब हम इसमें
बह निकले
कलम! फिकर रही नहीं जहाँ
चले ये चले
कलम! रोको ना इसे, हवा है
ये बहने दो
कलम! पुरआवाज़ इसे आज ही सब
कहने दो
कलम! बहने की किसी चीज को
रोको न कभी
कलम! जो बढ़ गए आगे उसे टोको
न कभी
कलम! इस शून्य में अब क्या
जोड़े
कलम! नव गीत लिखने को हैं
दिन थोड़े
कलम! लिखो कि दिल में लहर
आये
कलम! कहो कुछ ऐसे कि दिल भर
जाए
( निहार रंजन, समिट
स्ट्रीट, २२ जून २०१४)