Saturday, November 24, 2012

विरहगान


बैरी रैन काटी नहीं जाय ,एक अजीब उलझन सी लागे
मैं तरसूँ रह-रह आस तोहारे, निश सारी डरन सी लागे

बाग़ ना सोहे मोहे बलमा ,बिन रंग लागे सारी बगिया
मैं बिरहन तड़पूँ तोहे पाने, हिय मोर जलन सी लागे

किसे पीर कहूँ मन माही, कोई अपना सा नहीं लागे
प्रीत की बातें हलक ना उतरे, दुनिया बंधन सी लागे

बादल जब से घिर आयो है, मोरी तपिश और बढ़ायो है 
झड़ झड़ गिरती इन बूँदों से, मोहे आज दहन सी लागे

भाये ना मुझको जूही वेणी, भाये ना मुझको चूड़ी कंगना
सौ सुख पा के रहूँ अधूरी,  कछु नहीं सजन सी लागे

बैठी हूँ आस तुम्हारी लिए, जब चाहो आ जाओ मिलने
जब तक तुम रहते मेरे मन में, धरती उपवन सी लागे

हाँ देर से आती है लेकिन, मन का विषाद उतरे गहरी
पसरे विष फिर उर अंतर में, ज्यों सांप डसन सी लागे

मैं ना भजति ईश्वर को, जो तुम ही  मेरे मन बसते
रटती रहती नित तोर नाम, मुझे वही भजन सी लागे

(निहार रंजन २७-९ २०१२)

16 comments:



  1. कल 26/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. हलचल में पोस्ट शामिल करने के लिए आपका शुक्रिया यशवंत भाई.

      Delete
  2. बेहतरीन अभिव्यक्ति निहार भाई .. और इतनी लयबद्ध कि वाकई गेय है .. सुन्दर भाव।
    सादर
    मधुरेश

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर मन के भाव ...
    प्रभावित करती रचना .

    ReplyDelete
  4. बहुत ही सुन्दर विरह्गान..
    मनभावन..

    ReplyDelete
  5. बहुत बहुत सुन्दर ..
    मनभावन अभिव्यक्ति निहार जी...

    अनु

    ReplyDelete
  6. भावप्रबल ....बहुत सुंदर विरहगान ...!!

    ReplyDelete
  7. wah ! virhan ki tadap ko khoob shabd diya hai apne

    ReplyDelete
  8. बहुत खूब! बहुत मनभावन भावमयी प्रस्तुति...शब्दों और भावों का अद्भुत संयोजन...

    ReplyDelete
  9. बहुत सुन्दर लगी पोस्ट।

    ReplyDelete
  10. भावमय करते शब्‍दों का संगम है ... आपकी यह प्रस्‍तुति

    आभार

    ReplyDelete
  11. वाह खूबसूरत प्रस्तुति

    ReplyDelete
  12. बहुत सुंदर ब्लॉग

    ReplyDelete
  13. बृज अवधी का जैसे ठंडा झोंका चल पड़ा हो

    ReplyDelete
  14. अच्छा लिखा है..

    ReplyDelete