Thursday, September 12, 2013

लैलोनिहार चल तिमिर छाड़

दिवस हो या हो निशा,
दो रूप हैं, पर है समय
दिवस-प्रीति निशा-भीति,
क्यों निशा से इतना भय?
हो नहीं पाओगे पुलकित
देखकर टिम-टिम वो तारे
बहती नदिया पर छिटकते
चन्द्रमा  को पा किनारे
क्यों उजालों की ही वांछा
रुचती मन के निलय में
क्यों निशा में दंश इतना
चोट करती मन-अभय में
जो निशा अस्तित्व ना हो
एकरस हो जाए जीवन
उठती क्या आनंद लहरी
प्राप्त कर प्रातः समीरण
कर निशा से द्वेष तुम
यूँ ना करो अपमान उसका
भेंट हैं यह, भव-बंधन की  
आओ करें सम्मान उसका

हाँ! दिवस की रोचि रुचिकर
पर दिवस में है तपन
वो तपन भी भीतिकर है
तपन-चाहना है किस मन?
ताप-भीरु हर मनुज है
चाहे ताप निखारे कुंदन
सर्वकालिक ही रहा है
मन अभिलाषित सुगम अयन
फिर दिवस श्रिति चाहता क्यों
पूछता हूँ प्रश्न मन से
भव के इस भ्रमजाल में जब
भीति-मूलें हैं सघन से
क्या दिवस से द्युतित जग में
लोप है दारित ह्रदय की
क्या दिवस में भुज-बल इतना  
निर्गलित करे पथ सदय की
देखो! बली सुतनु मेघ को  
है किया उजागर बार-बार
विवश दिवस अवक्रांत कैसा   
प्रसृत मेघ जब करें प्रहार

उस तिमिर से ही निशा है
मेघ पर जो है बिहँसता
ये तिमिर है जिसको केवल  
बस समय ही जीत सकता
तिमिर भी एक व्याध है
शत्रुता जिसकी मन-खग से 
अर्गलित कर द्वार मन के
वर्धित करे अपरक्ति जग से
दृष्टि का है खेल सारा
दिवस निशा दोनों ही निर्मल
मन के चक्षु तिमिरहीन तो
सब कुछ दिखता धवल-धवल
निर्दोष है सारी निशा
सब तिमिर की करनी है
मन जो दे प्रश्रय उसको
सकल भीति की जननी है
कह तिमिर से, जब बसाये
मन में वो अपना बसेरा
"तुम जो चाहो, रात लाओ
देखता हूँ मैं सवेरा!"

(निहार रंजन, सेंट्रल, ११ सितम्बर २०१३)


लैलोनिहार- रात और दिन  
वांछा = इच्छा 
निलय = घर, कक्ष 
प्रातः समीरण = सुबह की हवा 
भव-बंधन = सांसारिक बंधन 
रोचि = प्रभा 
भीतिकर = डरावना 
सुगम अयन = आसान मार्ग 
श्रिति = सहारा 
द्युतित = प्रकाशित 
दारित ह्रदय = दुखी ह्रदय 
निर्गलित = बाधाहीन 
तिमिर = अँधेरा 
व्याध = बहेलिया 
अर्गलित = बंद 
अपरक्ति = द्वेष 

Thursday, September 5, 2013

लेकिन कविता रूठी है


देख यह विस्तीर्णता यूँ
व्योम में फिरता हुआ मन
नील नभ की नीलिमा से
तीर पर तिरता हुआ मन
लेकिन कविता रूठी है

दिवस किरण-वांछा से तिरपित
चले विहग उत्फुल्ल हो-हो कर  
कुछ पेड़ों की फुनगी चढ़कर  
उठा रहे नंदद स्वर अंतर
लेकिन कविता रूठी है

उड़-उड़ कर आती है हवाएं
तन सहलाये, मन सहलाये
मंद-मंद, कानों पर थपकी
देती जाये, मन हुलसाये
लेकिन कविता रूठी है

मौन हैं पर्वत मगर
विगलित हिमों से कह रहे
लब्ध है उनको मिलन
उन्मुक्त हो जो बह रहे   
लेकिन कविता रूठी है

अगत्ती बादल अल्हड़ाये  
कर प्रत्यूह प्रधर्षित पथ में
कहता रहता है रह-रह कर
आओ उड़ लो कल्पित रथ में
लेकिन कविता रूठी है

चुप सी विभावरी रात है
बहती मद्धिम वात है
तारिकाएं है गगन में
भावों की बरसात है
लेकिन कविता रूठी है

(निहार रंजन, सेंट्रल, ५ सितम्बर २०१३)

अगत्ती - खुराफाती, जिसकी चाल  या गति का निर्णय कर पाना मुश्किल हो 

Saturday, August 31, 2013

ताश के पत्तों का आशियाँ

ये दर-ओ-दीवार, ये फानूस
लटकती पेंटिंग पर
नीम-शब का माह
‘लिविंग रूम’ में सजी 
आतिश-फिशां तस्वीरें
दफ्न किये गुज़रे वक़्त की
वो यादें जिसमे
नूर का एक दरिया था
आज नूर गायब है!
हवा की हलकी आहट से भी
ये दीवारें डोल रही है
ये पत्थर की दीवार है
या ताश के पत्तों की?

रंगीन माहौल में पहली
खुशनुमा सी वो मुलाक़ात
जिसकी खुशनुमाई थाम रखी थी
‘इलेक्ट्रिक लेमोनेड’ की तरंगों ने
जहाँ ‘पूल टेबल’ पर
हर ‘शॉट’ के साथ
उसके झुकते ही झुक जाती थी
शातिर सय्याद चश्म
हुई थी इब्दिता-ए-मुहब्बत
उसी रोज़, उसी खोखली
रंगीन रौशनी के आब-ओ-ताब में
बुनियाद रखी गयी थी
ताश के पत्तों के आशियाने की    

चन्द लम्हात गुज़रे भी नहीं
एक ‘मुकम्मल’ आशियाँ खड़ा था
मखमली गद्दों के सोफे
साठ इंच की “वाल माउंटेड” स्क्रीन
‘पार्टी पैक एपीटाईज़र्स’  के साथ
झागदार ‘सैम एडम्स’ का ‘सूटकेस’
‘डेट्रॉइट टाइगर्स’ और ‘न्यूयॉर्क यैंकीज’ का मैच
दोस्तों की जमघट, उनका खुलूस
तखइल में वो नकूश हो
तो भी यादगार हो
एक मुक्कमल हयात की तस्वीर
यही जानी थी तुमने
ज़िन्दगी की तमाम ख्वाहिशें
इसी ‘मनी और हनी’ के रगबत तक
सिमट के रह गयी थी
ताश के घरों की पुरनूर ख्वाहिशें!

‘मनी और हनी’ के कॉकटेल की
तासीर ही तो थी आखिर
कि कल्ब से कब्ल बाँधी थी तुमने
अपनी डोर उसकी इजारबंद से
नावाकिफ इस बात से   
कि इजारबंद में असीर होकर
आशियाँ बसाने वालों के घर
तब्दील हो जाते हैं
ताश के पत्तों के घरों में
जिसके बनने और ढहने में
फासला होता है बस एक लम्हे का

लेकिन ग़मख्वारी किस सबब?
तल्खियां पिन्हाँ कहाँ इस कल्ब में
घर गिरेंगे, फिर घर उठेंगे
बवक्ते मय-परस्ती
फिर से सजेगी ‘पूल टेबल’
फिर से झुकेंगी सय्याद निगाहें
फिर से उठेंगी वहीँ पर
‘इलेक्ट्रिक लेमोनेड’ की तरंगे
बन जाएगा दुबारा
ताश के पत्तों का आशियाँ
‘वन्स’ मिलने वाली ‘लाइफ’ की
सॉलिटरी, सिंगल चॉइस

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३० अगस्त २०१३)  

Saturday, August 24, 2013

यही है, जो है

यही अक्षर समूह हैं
जिसमे अब मेरा सब है
मेरी प्रतिच्छाया, उन्माद, अवसाद   
हर्ष, आर्तनाद, आह्लाद
सब यही है
वरन मेरे इस नश्वर शरीर का,
जिसका भविष्य यही पल हो,
मोल क्या है?
इसलिए अपनी तारीकी, अपना रंग
स्वप्न, कल्पना, यथार्थ के संग    
ह्रदय में उपजे भाव
बिना तोड़े, मरोड़े
बिम्बों की जटिलताओं से दूर
इन्हीं सीधे भावों में
दफ़न करना चाहता हूँ 
तिमिर स्नात निलयों में
भास्वर पुंज प्रवाहित कर
कुछ शब्द-पुष्पों के उपवन
उगाना चाहता हूँ
वर्ण-तरुओं की छांह में
शीतलता के स्वार्थवश
छंदित मन से कुछ
स्वछंद गीत गाना चाहता हूँ 
ह्रदय से शब्दों की
शीतल निर्झरणी बहती रहेगी
लयहीन हो या अनसुलझा   
यह यात्रा अविरत चलती रहेगी
अक्षर से अ-क्षर जीवन है
यही मेरा मीरास धन है
यही मेरा निर्वाण है
सतत प्रघातों से देता 
सद्क्षण तनु-त्राण  है
अक्षर हैं, यही है, जो है.


(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, ८ अगस्त २०१३)

Thursday, August 15, 2013

कंटक व्यथा

कब देखा है तुमने मुझको,
सुर चरणों पर इठलाते हुए
कब देखा है तुमने मुझको
अलकावलि में बंध जाते हुए
कब देखा है तुमने मुझपर
बेसुध मधुकर बौराते हुए
कब पाया है तुमने मुझको
दब पन्नों में मुरझाते हुए 
स्मृति को कर जोरों झंकृत
मुख पर मुस्कान जगाते हुए
हो नहीं सका कभी ज्ञात दोष
बस कर्म किये मैं जाता हूँ   
मैं दूष्य सदा इस अवनि पर
बदनाम हुआ मैं जाता हूँ

मैं प्रहरी हूँ जिस रचना का
धोखा नहीं उसको दे सकता
पालित, पोषित जिस रचना से
संग उसके ही जीता मरता
मैं उनमे नहीं हूँ जो अपनी  
जननी से सद सिंचन पाकर  
कर मुग्ध किसी के नयनों को
जा सजते हैं पर-ग्रीवा पर
झड़ जाऊं हलके झोंके से
इतना तनु अस्तित्व नहीं 
परजीवी सा जो जीवन हो
उस जीवन का औचित्य नहीं
जो सूख भी जायें शाखें,पत्ते
मैं संग उसी मिट जाता हूँ
लेकिन देखो सदियों से ही
बदनाम हुआ मैं जाता हूँ

खलनायक सी उपमा मेरी
अर्णव हिय में चिर व्यथा-भार
प्रतिशीत वहीँ पर सान्द्र पीर
क्या तुम जानो वेदना अपार
नहीं अहर्नीय ये विषाद नहीं
तन तलिन है ये अवसाद नहीं
वनित वन्या ही रही हर काल में
और मैं शत्रु-सम, ये अपवाद नहीं
रक्त-पिपासा गुण नहीं मेरा 
चलाता नहीं किसी पर जोर
मैं निरंकुश बेधता उनके कर  
तोड़ने बढ़ते जो फूलों की ओर 
निध्यात व्यथा हुई ना अबतक  
सो आज सबको बतलाता हूँ  
जो अपना धर्म निभाता हूँ
बदनाम हुआ मैं जाता हूँ


(निहार रंजन, सेंट्रल, १४ अगस्त २०१३)

अर्णव हिय - व्याकुल ह्रदय 
प्रतिशीत  - पिघला हुआ
अहर्नीय - जो अर्चना करने लायक हो 
तलिन - दुबला पतला 
वनित -जिसे पाने की इच्छा होती है 
निध्यात -जिसके बारे में फिक्र  किया गया हो 



Friday, August 9, 2013

पैमाना और दायरा


समय तो समय है
पैमाना ठहरा पैमाना
लेकिन समय का पैमाना
अगर जाता है बदल
तो परिवर्तन बनता अपरिवर्तन
खो जाती है किलकारी
गुम होता है क्रंदन
बढ़ जाती है धूप
घट जाती है छाँव
गुम हो जाता सब कुछ
चाहे शहर हो या गाँव

छह घंटे के पैमाने में
दिखता परिवर्तन ही परिवर्तन  
सुबह से दोपहर हो
या दोपहर से शाम से रात
पल-पल बदलती धूप, हवा 
पैमाना गर बदले छः हजार साल में
तो लगता है कुछ नहीं बदला
वही चाँद उगा वही सूरज निकला
वही लोग हुए, वही प्रेम और द्वेष
एक दूसरे के संहार की अभिलाषा
अभी तक सबमे शेष   

हाँ जेठ से शिशिर तक होती दौड़  
चन्द्र दागी और अंशुल मिहिर सिरमौर
मगर हज़ार सालों में ये भी कुछ नया नहीं
और छह अरब सालों के पैमाने से  
पृथ्वी पर दिखता परिवर्तन ही परिवर्तन
ये पहाड़, ये नदियाँ, मानव जीवन
सतत परिवर्तन का कराते दर्शन
जो पैमाने का बदलता दायरा
कितना बदल जाता है माजरा !     


(निहार रंजन, सेंट्रल , ९ अगस्त २०१३) 

Saturday, July 20, 2013

नव-निर्माण

गुरु कवियों ने शायद
यही मान लिया था
रस  हीन शब्द कविता नहीं,
जान लिया था
और कविता में रस-फोट
करने का ठान लिया था
कभी रसिया चरित्र का
सौद्देश्य निर्माण कर 
तो कभी राधा-कृष्ण रस-केलि का
जीवंत बखान कर
रची जाती रही कविता
गीत-गोविन्द या रसमंजरी  
बहती ही रही रस-लहरी 
क्या भक्तिकाल, क्या रीतिकाल
क्या जयदेव, क्या रसलीन
शब्द हुए नहीं रास-रक्तिहीन 
जो राजाओं के स्वर्ण मोहरों ने
कलम में भर दी स्याही रस की 
होता रहा उनसे सतत रस-स्राव
तृप्त होता रहा समस्त दरबार
कवियों को मिलता रहा आहार

रसहीनता कहाँ जब स्त्री देह का
सामने था नवला, चंचला रूप
आद्योत उसी से था कवि मन-मंकुर
वहीँ रसथल में प्रस्फुटित हुआ अंकुर
उगे सघन पेड़, मिली शीतल छांह
विचरती मोहिनी से मिली गलबांह 
उथल पड़ा वहीँ रस-सागर
चलता रहा रोम-रोम रस मंथन  
इसीलिए कभी अग्निपुराण
तो कभी ब्रम्हवैवर्त में
कलम को रुकना ही पड़ता था
नगर की स्त्रियों का असह्य यौवन भार
सबको कहना ही पड़ता था
उसी रस-चाशनी से पुराण
करते रहे जनकल्याण
चलता रहा रस के कुँए पर
मधुर काव्य सृजन
मुग्धा रस-घट भरती रही
उसके वक्र-कटि पर भरा घड़ा 
सरेराह छलकता रहा
कवियों की प्यास बुझती रही
कविता की निर्बाध रसमय यात्रा
सदियों से चलती ही रही  

सदियों की यात्रा के बाद
परिवर्तित रूप में भी वही हाल है
किसी मुदिता की मुख-चांदनी पर  
सारे शब्द निढाल हैं
ख़याल-ऐ-यार है
तो कविता में बहार है
वो  हंस दे मन में
तो शब्द मुस्कुराएं
और रूठ जाएँ
तो शब्द मुरझाएं  
और यादें रसीले शब्द बन जाएँ
तो पूरा चारबाग झूम जाए  
लेकिन पुराने उपमाओं, अलंकारों में
विरह-राग में, पायल की झनकारों में
कब तक कैद रहे कविता?
कब तक उन्हीं रसों से बने
आसव और अरिष्ट
क्यों ना बहे
कविताओं में नूतन समीर
क्यों ना मिले कविताओं में
सिर्फ निर्मल नीर!

उठे भूख की आवाज़ शेष  
उभरे ह्रदय में अंतर्निहित क्लेश
रांझे की पीर का बहुत हुआ बखान
आओ कविताओं में लायें विज्ञान
लौटे स्त्री-देह में, लेकिन गर्भ में
करें अपना जीवन संधान  
सोचें डीएनऐ की, कोशिकाओं की
विज्ञान के असीमित संभावनाओं की 
धमनियों की, मस्तिष्क खंड की
गर्भाशय से चिपके मेरुदंड की
भ्रूण की, उसमे ह्रदय स्पंदन की
नव जीवन के अंकुरण की  
जननी के रक्षा आवरण की
उसके छातियों से निकले प्रोटीन की
आनुवांशिकी की, जीन की
लैकटोज की, फ्रक्टोज की
ग्लूकोज और गैलेक्टोज की 
या कूच करें अंतरिक्ष में
तारों से रू-ब-रू हो लें 
चाँद के सतह का विश्लेषण करें
निर्वात की बात करें
और खो जाएँ महाशून्य में
सोचें पृथ्वी की कहानी
कैसे कहें कविता की जुबानी
यह जानकर भी
कि पृथ्वी, निर्वात, या शून्य में  
कविता का रस सूख जाता है
नाभि से खिसक नाभिक वर्णन से  
कविता का रस सूख जाता है
कवि-मन पर लगाम लगाने से 
कविता का रस सूख जाता है
मगर ग़ालिब की अमर शायरी के लिए
शकील के शीरीं बोल के लिए
या दिनकर की आत्मा की आवाज़ सुनकर
रस को दें थोड़ा त्राण  
आओ कविजन! रस से हटकर   
कविता में हो कुछ नव-निर्माण

(निहार रंजन, सेंट्रल, १ जुलाई २०१३)


चारबाग - लखनऊ का रेलवे स्टेशन ( वहाँ पर सन २००२ में सुने काव्य की स्मृति  )