हिंदी दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है करीब महीने भर पहले लिखी मेरी यह कविता-
शाम से सुबह तक
रक्तिम किरणें पश्चिम की
हो गईं निस्तेज
कह रही चिड़ियों से अब
चलो सजाओ सेज
होता दिन का अवसान देखकर
शाम से सुबह तक
रक्तिम किरणें पश्चिम की
हो गईं निस्तेज
कह रही चिड़ियों से अब
चलो सजाओ सेज
होता दिन का अवसान देखकर
चली चिरैया नीड़
इससे पहले कि अन्धकार
दे उसके पथ को चीर
नीड़ पहुँच कर उसने देखा
बदला क्षितिज का ढंग
और धरा पर नीचे
उछलते गाते कीट-पतंग
हो गया स्तब्ध जगत
रात हो गयी और अंधियारी
नभ के तारे पहरे देते
आयी निशाचर प्रहर की बारी
फिर फूटी पूरब से किरणें
रोशन हो गयी सारी दिशाएं
आओ निकलें नीड़ से
एक उड़ान फिर से भर आयें.
(निहार रंजन, सेंट्रल, ३-८-२०१२)
इससे पहले कि अन्धकार
दे उसके पथ को चीर
नीड़ पहुँच कर उसने देखा
बदला क्षितिज का ढंग
और धरा पर नीचे
उछलते गाते कीट-पतंग
हो गया स्तब्ध जगत
रात हो गयी और अंधियारी
नभ के तारे पहरे देते
आयी निशाचर प्रहर की बारी
फिर फूटी पूरब से किरणें
रोशन हो गयी सारी दिशाएं
आओ निकलें नीड़ से
एक उड़ान फिर से भर आयें.
(निहार रंजन, सेंट्रल, ३-८-२०१२)