Monday, December 16, 2013

महाशून्य

यूँ ही चलती जीवन-यात्रा
जन्म से मृदा-मिलन तक
कभी हर्ष, कभी विषाद से भरी
विस्मय और अनिश्चितता पर अड़ी 
क्षण में जलती, क्षण में बुझती  
उमंगों और आशाओं की नैया खेती
एक अनुत्तरित रहस्य बन
ह्रदय के अंतिम धड़कन तक  
उद्वेलित करती हमारे मन को
यही जानने के लिए
कि ये जीवन क्यों है?
ये जीवन किसलिए है ?

कभी धर्म का अवलम्ब पाकर
कभी विज्ञान का संग पाकर
मन कूद जाता है  
उस महाशून्य का पता पाने
जिसकी अंतर्धा का
कब से हो रहा अनुसंधान
फिर भी अज्ञात है
जीवन का ज्ञान
जो, धर्म और विज्ञान
अपनी व्याख्याओं से
पा चुके हैं एक किनारा
और इनके उनके पास जाकर
पता नहीं चलता
कहाँ छुपा है सत्य सारा

रहस्य निवर्तमान है जबकि
विज्ञान ने संदेह से परे
निर्धारित किया है
गुरुत्व बल के आधिपत्य को
ब्रम्हांड की आयु को
उसकी उत्पत्ति के घटनाक्रम को
उसकी प्रसृति और संकुचन को
विखंडन और संलयन को
और यह भी कर दिखाया कि जीवन
स्त्री और पुरुष का संयोग भर नहीं
पूर्वनिर्धारित दैवीय आशीर्वाद नहीं
‘प्यूरीन’ और ‘पिरिमिडीन’ के संकेतों में आबद्ध 
प्रतिपल अपनी श्रेष्ठता को अभियानरत
अनश्वर उत्प्रेरक के मानिंद
खींचता जा रहा है मनुष्य
पीढ़ी दर पाढ़ी
अपने जीवन को
एक अनिश्चित समय की यात्रा पर
लेकिन मन प्रत्यागत हो
उसी आदि-बिंदु पर
उलझ जाता है उसी ‘ब्लैक होल’ में
उसी ‘बिग बैंग’ में
जिसकी ब्रम्हांडीय आतुरता को
समझ नहीं सका कोई आज तक

और धर्मों के अपने-अपने आख्यानों में
साम्य है,
उस परमेश्वर के अस्तित्व में  
जिसे सदेह ना देखा, ना सुना है
आस्था की डोर से बंध हमने
उसकी शक्ति को भजा और गुना है
साम्य है,
स्वर्ग और नर्क के रास्तों में
तथा इच्छित उद्देश्यों के तहत किये
कृत्याकृत्य के मीमांसा व अमीमांसा में
स्वर्ग प्राप्ति की जगायी आकांक्षा में
साम्य है,
अपनी-अपनी परात्परता में
अपने परमेश्वर के लिए प्रतिबद्धता में
उस ढाँचे के समरूपता में
जो देता है,
मन में जागे हर जिज्ञासा का पता
उसी लोक में,
जो इस जीवन में नहीं मिलता
जो देता है,
जीवन में प्राप्त दुःख का पता
उसी लोक में,
जो इस जीवन में नहीं मिलता
और मन पूछता ही रह जाता है
उस सर्वकल्याणी ईश्वर से
कि जगत-पिता होकर भी
किस तुष्टिकरण के निमित्त यह संसृति?
जहाँ क्लेश-क्लांत है उनके संतानों की गति

इन्हीं प्रश्नों के बीच दिखता है
धर्म का व्यापक लक्ष्य,
मानव कल्याण के लिए
दुःख-दग्ध निस्सहाय
मन के व्योम में   
दुःख-लभ्य दीप-कली से
जीवन उत्थान के लिए
चाहे परमेश्वर अभिदर्शन हो ना हो
चाहे परमेश्वर-मर्शन हो ना हो

फिर  कौंध उठता है
मन में विज्ञान
परखनलियों से
एक ध्वनि सी आती है
जो उत्साहित हैं अपने रसायनों से
उनकी व्याधिहारी शक्ति से
जो दिखाते अपना ईश्वरीय रूप
जब रोगी तन में जाकर
भिड़ते वो आयुवर्धन को
या किसी मृत से शरीर में
फूंकते नवजीवन को
ईश्वर और विज्ञान के
इसी दो पाटों के बीच
महाशून्य को खोज में उद्विग्न मन
एक नियत आवृति से जाता घूम-घूम
और मैं अपने हाथों को चूम-चूम
यत्न करता हूँ,
नव यौगिक निर्माण का    
कभी विज्ञान से, कभी महाशून्य से
पी लेता हूँ जीवन-रस की दो बूँद
और फिर उसी महाशून्य की गहराइयों में
खो जाता हूँ आखें मूँद


(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, १५ दिसम्बर २०१३)

Sunday, December 1, 2013

हड़प्पा

काल-चक्र  के  अवर्त  में,  
घिर जो हुआ  था  वीरान    
किसे ज्ञात था, रहेगा संवृत,
भू-कुक्षि   में वो  निशान
जिसमे निभृत, सभ्यता की
होगी  एक   ऐसी  कहानी
तार-तार  जिसके सुलझाने,
उलझेंगे  दुनिया के  ज्ञानी  
और करते  जिनका संधान
कभी नहीं हम  थक पायेंगे
परतें उसकी खोल-खोल के
अथक स्तव-रव  ही गायेंगे

लुप्त हुआ कूजन-कोलाहल,
जाने किसने थी क्या ठानी
और उठा था वहां से जीवन,
सच कहते दुनिया  ये फानी
निवृत्त हुआ सर्वस्व मृदा में,
रही  अस्थियाँ  अवशेष बन
विध्वंस के साक्षी निलयों में,
पसरा  था  खाली  सूनापन
किसे पता ये, प्रलय-याम था
या  धधकी  कोई  चिनगारी
स्रस्त  हुए  उत्कर्ष-श्रृंग  से,
सकल सभ्यता  ही थी हारी

समय-पराजित  हुई सभ्यता,
पर  ना  घटी उसकी उंचाई 
अनावृत वो  भूत हुआ  जब,
सबकी आँखें  थी  चौंधियाई
कारीगिरी से भरा शिल्प था,
जाने  कैसे  थे   दस्तकार  
बीते  हजारों  वर्ष   लेकिन,
हिल ना सकी उनकी दीवार
क्या धातुकला की निपुणता,
कितना उन्नत उनका विज्ञान
परिगूढ़ लिपि कैसी  उनकी,
नहीं  सका  कोई  पहचान   
    
और  नग्न नृत्यांगना  की,
रहस्य  भरी  है  निशान्ति
कांस्य सांचे  में  ढल  भी,
जिसकी ना मलिन हुई कांति 
प्रवर   नगरवधू  वो  कोई
या अदा-व्याप्त मधु की रानी
कवरी-बाला   संतप्त   कोई
या  रूपवती  वो अभिमानी
जाने  ऐसी  कितनी पृच्छा,
जिसके उत्तर से सब वंचित
विस्तृत भूभागों  में कब से,
जाने अब भी है क्या संचित

किसे ज्ञात कब दुनिया पाए,
इसमें गर्भित बातों का ज्ञान
पर   इसमें   संशय  नही,
धरती की वो सभ्यता महान
अवलोक जिनका ध्वस्त नगर,
जब हो जाता इतना विस्मय
सोचें  कैसा  जीवन उनका,
बीता   होगा  कर्म-तन्मय
कहती हमसे, हो कर्म गुणी,
तो  होती  ही, उसकी जय
चाहे  गर्त   में   दबाकर, 
कितना भी क्षय करे समय  

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३० नवम्बर २०१३)

अवर्त = तूफ़ान, मुश्किल समय 
संवृत = संरक्षित, ढँका हुआ 
भू-कुक्षि = पृथ्वी की कोख 
निभृत = छुपी हुई 
स्तव-रव- प्रशंसा के  शब्द
निलयों = घरों 
प्रलय-याम = प्रलय का पहर 
स्रस्त = गिरा हुआ 
कवरी-बाला- बंद चोटी वाली लड़की 
पृच्छा = जिज्ञासा 

Friday, November 22, 2013

हितवचन

पिछली कविता के नायक के लिए एक हितैषी के शब्द 

मधुमत्त हाल से मिलता तुझे निजात
काश! मैं कह सकता तुझसे एक बात
कहना है, सो कह ही जाता हूँ, खैर
स्वाधीनता कर अर्थ होता नहीं स्वैर

मैं ये कहता हूँ क्योंकि
जिस स्नेह-बंधन को माना तुमने जंजीर
जिन स्नेह-शब्दों को माना तुमने तीर
जिस पिता के वचनों को माना तुमने शमशीर
जिस बंधन से मुक्ति के लिए थे तुम अधीर
जिस स्वाधीनता जो जीत बने हो तुम वीर
वही स्वाधीनता जब बनेगी प्रेत का साया
सोचोगे तुम जरूर, क्या खोया, क्या पाया?

हे मधु-हत मति के स्वामी!
पूछो उन परिभाषाओं से
जिसने वर्णित किया है तुम्हारा पुरुषत्व
तुम्हारे प्यालों की उंचाई और गहराई में
‘महा-रंता’ बन चले पथ-लम्बाई में
पाप-मुक्ति, उदित होते तरुणाई में
पूछो अपने घर की दीवारों से
उसमे व्याप्त तन्हाई से
जिसे भरते हो तुम ओडियन-प्रेम से
उसके निर्बाध समर्पण से
बिना ये जाने कि उसका प्यार क्यों है
उसका प्यार किस से है?
पूछो उन परिभाषाओं से
जिसने अविष्कृत किये हैं
‘मेल (Mail) आर्डर वाइफ’ जैसे शब्द
और सिखाई है तुम्हे
युक्तियाँ प्रेम क्रय की
पूछो उन परिभाषाओं से
जिसने बदल दिया है परिवार का अर्थ
जिसने बदल दिया है समाज की संरचना
जिसने बदल दिया है उत्तरदायित्व
और बनाया है समाज को बन्धनहीन
इस तरह कि प्रेम सीमित रह गया है
बस ओडियन के अस्तित्व में
ओडियन के समर्पित आलिंगन में 
लेकिन तुम्हारी चेतना जागृत नहीं
इस बात के बोध के लिए
कि आत्म-सुख में लीन होकर
फैलता है जंगल
जहाँ हावी रहती है पशु-प्रवृत्ति
पर-दमन के लिए, पर-संहार के लिए

शायद उसी प्रवृत्ति ने तुम्हे
विवश किया घर ढाहने के लिए
ताकि तुम जा सको स्वनिर्मित जंगल में
पत्नी और पिता को दूर धकेल
अपने पाशविक रूप में
जहाँ छलक सके ओडियन का प्रेम
तुम पर!     


(निहार रंजन, सेंट्रल, २० नवम्बर २०१३)

Tuesday, November 19, 2013

ओडियन

ओडियन यानि जर्मन शेफर्ड नस्ल का एक श्वान

ये अलग बात है
कि दुनिया मुझे ओडियन-प्रेम से जानती है
ये अलग बात है
कि अपनी पत्नी से किनारा किया है मैंने
ये अलग बात है
कि सूचित किया है मैंने पिता को
अनुमति से, मेरे गृह में प्रवेश के लिए
ये अलग बात है
कि ओडियन मेरा प्रेम भी है
और ओडियन मेरी मजबूरी भी

क्योंकि मैं लाचार हूँ
निजता के उल्लंघन से
और  शब्द-बाणों के 
अनवरत उत्पीड़न से
क्योंकि अपनी ज़िन्दगी का निर्धारक
मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ !
और शूल सी है बेधती मुझे
पत्नी से नोक-झोंक
या पिता का रोक-टोक
इसलिए ‘ओडियन’ से बहुत प्रेम है मुझे!
क्योंकि ओडियन कभी भी  
प्रश्न नहीं करता, शूल नहीं बेधता

बहुत प्रेम है क्योंकि
‘ओडियन’ ढोंगी साधु नहीं
जो समर्पण मांगता है मुझसे!
बल्कि, दिन भर एकांतवास करता है
और घर लौटते ही
मुझे समर्पित होने को मरता है
बहुत प्रेम है क्योंकि
वो प्रश्न नहीं करता
मेरी पत्नी की तरह
कि ‘एलिज़ाबेथ’ कौन है
क्यों मेरी संध्या-सहचरी है ?
क्यों प्याला लिए खड़ी है ?
बहुत प्यार है क्योंकि
उसे मुझे मेरे पिता की तरह
तपस्वी नहीं बनाना
और शांतिमय जीवन के
नुस्खे नहीं सिखाना

यही बात है मुझे खटकती
आज़ादी का अर्थ यह नहीं
कि बंध जाऊं पिता के आग्रह से
और उनके अंतर्मन के विचार
मुझमे पा जाएँ विस्तार
फिर अपने श्रम से अर्जित धन से
भरे यौवन में विरक्त होकर
इच्छा करूँ तपोबल की  
इच्छा करूँ क्षालित मनोमल की
जो वो अनजान इस बात से  
कि मैं विश्रांत हूँ
अपनी स्वाधीनता के सतत दमन से
कि एलिज़ाबेथ, उन्मुक्त विचरण के लिए  
क्रिस्टीना, गाढ़ालिंगन के लिए  
जूलिया, सर्वस्व अर्पण के लिए
नहीं करती है प्रश्न
इस आज़ाद प्रजातांत्रिक देश में
मेरी वैयक्तिक आज़ादी पर  
सिर्फ बंधन का नाम लेकर

इसीलिए मैंने किया है किनारा
अपने हितैषियों से
जो जीवन के इस पड़ाव पर
कर नहीं सकता समझौता
आज़ाद हवा में आज़ादी से
समर्पित नहीं हो सकता स्वयं
लेकिन मांगता हूँ समर्पण
अपनी आज़ादी के लिए
पत्नी से भी, पिता से भी
बिलकुल मेरे ओडियन जैसा
मांस की दो बोटियों के लिए
फकत दो बोटियों के लिए !

(निहार रंजन, सेंट्रल, १९ नवम्बर २०१३)