कब तक मिथ्या के आवरण में
रौशनी भ्रम देती रहेगी
कब तक भ्रामक रंगों में
बहकर
उम्मीद अपनी नैया खेती
रहेगी ?
आप पन्नों में लिपटे इतिहास
को बार-बार खोल लें
वही शतरंज, वही बिसात, वही
मोहरे
वही सज्जनों के अस्तित्व पर
छाये
घने कोहरे, घने कोहरे
हर युग की यही व्यथा है
वही कल की कथा थी, वही आज
की कथा है
नंगे, लम्पट हमें आदर्श का
पाठ कहेंगे
और हम यही सोचते हुए
जियेंगे
आदमी इतना क्यों गिरता जा
रहा है
आँखें उठाकर देखो तो शुभ्र
वसनों में छिपे
वही काले ह्रदय वाले उपदेश
देते लोग
हाथों में गीता लेकर
कहते हैं कि मातृसेवा से
बढ़कर कोई धर्म नहीं
मैं पूछता हूँ कोई चंगेज़,
कोई औरंगजेब, कोई लाल
कब तब बजाएगा अपना गाल
कब तक उधेड़ेगा हम निर्दोषों
की खाल
हम कब तक जलाएंगे गांधी
मैदान या अल्बर्ट एक्का चौक पर
क्रांति की मशाल
और लौट जाएंगे दबे पाँव
एक रोटी और एक मुस्कान के
लिए
शब्दों में नयी जान के
लिए
रात फिर हम सो जाएंगे
आशा की एक सुबह के स्वप्न
में
जहाँ एक बगिया में पंछी
चुनमुन गायेंगे
वही कवि-लोक की एक बगिया
सुनहले पंछियों की बगिया
लेकिन सुबह नींद खुलती है
तो रक्त से लथपथ सड़क पर खड़े
तमाशबीन
कहते हैं हम सज्जन कितने
हैं हीन
हम आत्मघाती नहीं हो सकते,
हम जीते चले जाएंगे
हम पीते चले जाएंगे दर्द की
एक-एक बूँद
कल सुबह होगी, कल शान्ति का
साम्रज्य होगा
सुबह होती नहीं, सुबह होगी
भी नहीं
हमने गले उतार-उतार के अपना
अस्तित्व बनाया है
हम गले उतार उतार के ही
अपना अस्तित्व बचायेंगे
जैवीय विकास जिस धुरी पर
टिकी है उसे नहीं गिरने देंगे
कोई मरे तो मरे खुद को नहीं
मरने देंगे
मृत्यु है शान्ति
शान्ति जीवन के नाम नहीं
जीवन के नाम है, फरेब, झूठ,
दासता, मोह और माया
प्रेम और स्नेह की क्षणिक
फुलझरियां, बिछोह के अंतहीन मरुस्थल
मरती हुई भावनाएं,
संवेदनाएं, कृतघ्नता का साक्षी होकर
चुपचाप मुंह बंद कर चले
जाना है जीवन
आप मृत्यु की शय्या पर लिटे हर किसी से पूछ लें
तृप्त नहीं है जीवन
रिक्त है हर किसी का मन
सब साँसों का निबाह किये
चलते हैं
उसी में आह और वाह किये
चलते हैं
(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड
स्ट्रीट, २७ अक्टूबर २०१४)