कि साकी! अब जियादा जोर
ना हो
और पियालों का भी
कोई शोर ना हो
रख रहे हैं लाज तेरे हाथ की
दो! आखिरी है आज की
कि साकी! पी भी लेते
कह जो देती, यह निशा जो,
किस दिशा को
जा रहा है ये पताकी, ये बता
कि
बिंदु दो हैं, फिर भी भ्रामक
जाल कैसा, चाल जिसमें
है सुलझती, और उलझती
नियत मिलता शूल, पाते कूल,
ओ! चलना पड़ेगा
रुकने से या झुकने से, होती
ना कमतर
लपटें आतुर आग की, दुःख-राग
की सुनता कोई कब
हाय यह अभिशाप कैसा, जन्म
लेना पाप कैसा (ओ माय गॉड!)
कष्ट दुःसह, उठता रह-रह,
दंतुरित मुस्कान की और
प्राण की,
ज्योति जलेगी कब तलक, जाएगा
किस दिन यह छलक
ओ साकी! है शपथ इस राज की
दो! आखिरी है आज की
साथ में, गर जानते वो राह
जिसकी चाह लेकर
हम चले थे, जाने कितनी
छातियों पर क्या दले थे
कहते सबसे, दीप यह जलता हुआ
रह जाएगा, सह जाएगा
मरु का बवंडर, और खंडहर से
ह्रदय का
एक कोना, एक बिछौना
एक तकिया, एक चादर जिसपे मैंने
दीप रखकर, सबसे कहकर, चल
पड़ा उन्मुक्त मैं
यह ढूँढने कि यामिनी में
दामिनी सी जो चमकती
निस्तिमिर करती जगत मम,
सित-असित का भेद भी कम
वो सितारा उस गगन में, और
मगन मैं
फिर भी चलता हूँ
बंधे उस अक्ष से, ओ प्रक्ष!
यह जान लो रखना नहीं, हमें
नींव अगले ताज़ की
दो! आखिरी है आज की
कि साकी! सी भी लेते
होंठ अपनी, बदल देते चाल
अपनी, ढाल अपनी
खो भी जाते कामिनी के अलक
में और पलक में
और भाष्य भी कहते प्रियंकर,
रहते तत्पर
मिथ्या के संसार में, सब
वार कर, सब पार कर
देते दिलासा, क्षणिक है यह नीर-निधि सा
पीर, क्यों हो प्यासा?
लो करो रसपान तुम, मधु के
नगर में, लो अधर पर
स्वाद वह, जिस स्वाद को
प्यासी है दुनिया, भागती पागल सी
अनजान इससे, सुख नहीं
है, छोड़ उस बांह को, जिस छाँह में
एक अंकुर, एक बिरवा से बढ़ा
था, शाख धरने, पात धरने
स्थैर्य का प्रतिमान बनने,
किसी दृग की शान बनने
कैसी उपधा, इस द्विधा की
क्या कहें, क्या-क्या सहे
इस तार ने, अब क्या सुनाएं
साज़ की
दो! आखिरी है आज की
कि साकी! अब जियादा जोर
ना हो
और पियालों का भी
कोई शोर ना हो
रख रहे हैं लाज तेरे हाथ की
दो! आखिरी है आज की
(ओंकारनाथ मिश्र, ऑर्चर्ड
स्ट्रीट, १० जनवरी २०१५)
कहां से कहां तक किस बहाने, ये मनभाव जाने चले क्या-क्या छूने
ReplyDeleteनिशब्द...एक एक शब्द गहन सत्य को चित्रित करता..
ReplyDeleteनिशब्द...एक एक शब्द गहन सत्य को चित्रित करता..
ReplyDelete… अब और ज्यादा जोर नहीं... कोई शोर नहीं ....
ReplyDeleteनिशब्द निशब्द बस पढ़ रहा हूँ
एक जिंदगी .. दो जाम साकी के आखरी ... पर कितने आयाम सिमिट के आ गए ...
ReplyDeleteअर्थपूर्ण भाव ...
.
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteआपकी इस खूबसूरत रचना को मै कुछ इस प्रकार से देख रही हूँ
ReplyDeleteजीवन मधु का प्याला है हम सब पीनेवाले बाकी पिलानेवाला ( साकी ) यही एक परमात्मा है ! बिना शोर शराबे के जिंदगी को हर पल ऐसे पी ले पीकर जी ले जैसे आखरी घूंट पी रहे है आखरी पल जी रहे है ! बहुत सुन्दर सार्थक रचना !!
शानदार तुकबंदी..गहरे अर्थ और मानवीय भावों को अभिव्यक्त करती सुंदर अभिव्यक्ति। ऐसे ही आखरी आखरी करते न जाने कितने जाम अंदर उतर जाते हैं पता ही नहीं लगता।
ReplyDeleteआख़री का कहीं भी अंत नहीं होता -----
ReplyDeleteरंग-ए-जिंदगानी
http://savanxxx.blogspot.in
सुंदर, प्रभावी रचना...अर्थपूर्ण भाव...मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ!!
ReplyDeleteसार्थक post :)
ReplyDeletehttp://drpratibhasowaty.blogspot.in/2014/12/6.html ( link 4 ur visit )
सुन्दर रचना प्रस्तुति ...
ReplyDeleteउत्तम रचना
ReplyDeleteकि साकी! अब जियादा जोर ना हो
ReplyDeleteऔर पियालों का भी कोई शोर ना हो
रख रहे हैं लाज तेरे हाथ की
दो! आखिरी है आज की..... बहुत सुंदर साकी के बहाने उत्कृष्ट दर्शन .... आपकी रचनाएँ मुझे शब्दकोश खोलने को मजबूर कर ही देती है ... इसी बहाने कुछ शब्द ज्ञान बढ़ जाते है ॥
मधु के नगर में आकर खूब रसपान किया . ह्रदय तृप्त हुआ..
ReplyDeleteगहन किन्तु मनभावन भाव लिए बहुत ही सुंदर रचना ।
ReplyDeleteमानवीय भावों को अभिव्यक्त करती सुंदर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनववर्ष का संकल्प
ReplyDeleteसशक्त रचना
ReplyDeleteबिंदु दो हैं, फिर भी भ्रामक जाल कैसा, चाल जिसमें
ReplyDeleteहै सुलझती, और उलझती
नियत मिलता शूल, पाते कूल, ओ! चलना पड़ेगा
....
और भाष्य भी कहते प्रियंकर, रहते तत्पर
मिथ्या के संसार में, सब वार कर, सब पार कर
देते दिलासा, क्षणिक है यह नीर-निधि सा पीर, क्यों हो प्यासा?
लो करो रसपान तुम, मधु के नगर में, लो अधर पर
स्वाद वह, जिस स्वाद को प्यासी है दुनिया, भागती पागल सी
अनजान इससे, सुख नहीं है, छोड़ उस बांह को, जिस छाँह में
एक अंकुर, एक बिरवा से बढ़ा था, शाख धरने, पात धरने
स्थैर्य का प्रतिमान बनने,
वाह बेहतरीन रचना
.....गहरे अर्थ को अभिव्यक्त करती सुंदर अभिव्यक्ति।
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