Wednesday, June 11, 2014

तह

शोणित व नख व मांस, वसा
अंगुल शिखरों तक कसा कसा  
आड़ी तिरछी रेखाओं में 
कहते, होता है भाग्य बसा
हाथों की दुनिया इतनी सी
वो उसका हो या मेरा हो
फिर क्यों विभेद इन हाथों में
गर चुम्बन लक्ष्य ही तेरा हो

हाथें तब भी होंगी ये ही
रुधिर में धार यही होगा  
रेखाविहीन इन हाथों में
जब श्रम-पतवार नहीं होगा
ओ! हथचुम्बन के चिर प्रेमी
उस दिन ऐसे ही चूमोगे ?
जिस दिन जड़वत हो जाऊँगा
क्या देख मुझे तुम झूमोगे?

यूँ बार बार चूमोगे तो
ग्रंथि तेरी खुल जायेगी
जिस सच पर पर्दा डाल रहे
खुद अपनी बात बताएगी
उभरेंगी  फिर से रेखाएं
जिनका हाथों पर नाम नहीं
कौशल किलोल कर जाएगा
आओ दे दो अब दाम सही

भोलेपन से अब कितना छल
हे मधुराधर के चिर-चोषक
सौ-सौ मशाल ले आये हैं
व्याकुल सारे पावक-पोषक
ठहरो! ठहरो! ये जान गए
क्यों मादकता की मची धूम
ये खूब जानते हैं क्यों तुम
इन हाथों को हो रहे चूम

स्वार्थें ही होती है तह में
संबंधों की इस संसृति में
गांठें नाभि की जब खुलती
कह देती, क्या उनकी मति में
निस्सीम प्रसृति है इसकी
नहीं शेष कोई पृथ्वी पर ठौर
वो बस माँ है और मिटटी है
होती जिसकी है बात और

(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट,  ९ जून २०१४) 

21 comments:

  1. शुभ प्रभात
    जिस दिन जड़वत हो जाऊँगा
    क्या देख मुझे तुम झूमोगे?
    और
    वो बस माँ है और मिटटी है
    होती जिसकी है बात और
    अद्धभूत अभिव्यक्ति
    उम्दा रचना
    शुभ दिवस

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  2. उम्दा प्रस्तुति...

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  3. उस दिन ऐसे ही चूमोगे ?
    जिस दिन जड़वत हो जाऊँगा
    क्या देख मुझे तुम झूमोगे?
    और इसका उत्तर भी
    स्वार्थें ही होती है तह में
    संबंधों की इस संसृति में
    गांठें नाभि की जब खुलती
    कह देती, क्या उनकी मति में
    निस्सीम प्रसृति है इसकी
    नहीं शेष कोई पृथ्वी पर ठौर
    वो बस माँ है और मिटटी है
    होती जिसकी है बात और... बहुत कड़वी बात, परन्तु सत्य तो कड़वा ही होता है ..

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  4. आपकी लिखी रचना शुक्रवार 13 जून 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  5. स्वार्थें ही होती है तह में
    संबंधों की इस संसृति में
    गांठें नाभि की जब खुलती
    कह देती, क्या उनकी मति में
    निस्सीम प्रसृति है इसकी
    नहीं शेष कोई पृथ्वी पर ठौर
    वो बस माँ है और मिटटी है
    होती जिसकी है बात और
    ...एक शाश्वत सत्य, जिसे हम शायद भूल जाते हैं...उत्कृष्ट प्रस्तुति...

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  6. भौतिकता के सत्य को उजागर करती हुयी रचना महत्वपूर्ण सन्देश देने पूरी तरह कामयाब । सही दिशा में लय बद्धता के समायोजन के लाजबाब रचना । आभार के साथ ही बधाई ।

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  7. bahut hi sundar smapurna rachna...

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  8. सत्य!
    गहन, विशिष्ट, संग्रहणीय रचना निहार भाई।
    बहुत बहुत बधाईयाँ। बहुत दिनों बाद कुछ पढ़ा और मन तृप्त हो गया!

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  9. बेहद प्रभावी अभिव्यक्ति , बधाई आपको !

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  10. हाथ की रेखाओं के आरपार एक विडम्‍बनात्‍मक जीवन का सटीक, सत्‍य चित्रण उकेरा है आपने, जिसमें से शायद ही कोई हो जो न गुजरा हो।

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  11. हर एक के प्रेम के पीछे स्वार्थ ही छुपा है।

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  12. बहुत बढ़िया सर!

    सादर

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  13. अद्भुत व उम्दा... पोस्ट बहुत कुछ छुपा रखा है आपने....

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  14. निस्सीम प्रसृति है इसकी
    नहीं शेष कोई पृथ्वी पर ठौर
    वो बस माँ है और मिटटी है
    होती जिसकी है बात और
    ... उम्दा सत्य...उत्कृष्ट प्रस्तुति...!!

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  15. वाह वाह ये कविता समझ आई ....पसंद आई ....शानदार |

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  16. स्वार्थें ही होती है तह में
    संबंधों की इस संसृति में
    गांठें नाभि की जब खुलती
    कह देती, क्या उनकी मति में
    निस्सीम प्रसृति है इसकी
    नहीं शेष कोई पृथ्वी पर ठौर
    वो बस माँ है और मिटटी है
    होती जिसकी है बात और
    उम्दा अभिव्यक्ति और उम्दा प्रस्तुति...

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  17. कह सकती हूँ कि .. आनंद आ जाता है इतनी सुन्दर रचना को आत्मसात करने के बाद.. बस बार-बार पढ़ने का मन होता है.

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  18. गहरा सत्य .. इन शब्दों के माध्यम से कितना कुछ कहने का प्रयास किया है आपने ...

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  19. हमेशा की तरह बेहतरीन रचना !

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  20. वाकई भविष्य तो परिश्रम और मेहनत में ही निहित है
    सार्थक और प्रभावशाली !

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