Friday, May 13, 2016

अन्वेषण

उन्हीं कणों का मैं एक वाहक
जिसमे रच बस गए हजारों
जिसमे बस फंस गए हजारों
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

मदिर पिपासा लिए हिमालय से
चल पहुंचा सिन्धु की छोर
छोर मिला ना, सलिल-बूँद! हाँ
चला हूँ अब अरावली की ओर

पर एक पिपासा, मदिर पिपासा
मेरी साकी, मेरा सांप
मेरा समतल, मेरा चाँप
रखूंगा कब तक उसको झांप
मेरी साकी, मेरा सांप
जिसकी गाथा दूर, दूर, से दूर कहीं पर एक गगन में
एक गगन क्या दूर, दूर, से दूर कही पर कई गगन में
उन्हीं कणों का एक वाहक  
मेरी साकी, मेरा सांप
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

धूप खिली थी, छाँव नहीं थी
मैंने छाँव नहीं माँगा था
नगर-डगर थे, डगर-शहर था
मैंने गाँव नहीं माँगा था
सोच रहा हूँ वो नादानी
जिसके कारण बिना स्वप्न के रात गयी
और खड़ी है शशिबाला ये
गुमसुम चुप-चुप कहती मन में
उन्हीं कणों के वाहक तुम भी
उन्हीं कणों की वाहक मैं भी
जिसे तलाशो अंतरिक्ष में
नींद वहीँ पर, चैन वहीँ
और वहीँ पर तेरा साकी, तेरा सांप
रात नहीं वो, बिना स्वप्न जो बीत गयी
कह देना उस साकी से तुम    

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १४ मई  २०१६ )


1 comment:

  1. तुम, मैं ... सभी ... उसी के तो अंश हैं ... एक ही दिशा है, एक ही तलाश है, अंत भी तो एक ही है ... अन्वेषण का भी अंत है ...

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