Friday, July 18, 2014

नयी जमीन

इन सीलन भरी दीवारों वाले
तमतृप्त वातायनहीन कमरे में
सिलवट भरे बिस्तर, और  
यादों की गठरी वाली इस तकिये पर
एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा चाँद
तीन टुकड़े नेह के, चार टुकड़े मेंह के
फाँकते हुए
असीरी के इस दमघोंटू माहौल में
कविता कहती है कि दम घुट जाए तो अच्छा है

नहीं गाये जाते हैं गीत पिया मिलन के
सदर अस्पताल के बाहर        
जहाँ पन्द्रह हजार में अनावश्यक सिजेरियन
और पैंतीस हज़ार में
बेमतलब गर्भाशय हटाने की तैयारी चल रही है
क्योंकि पेट में दर्द है
रेल रुका है, सड़क टूटा है  
पटना, दिल्ली के रास्ते बंद हैं
और सर्जिकल वार्ड के बाहर पंद्रह कुत्ते
एक साथ हृदयगीत गा रहे हैं
वहीँ भटिंडा का दलाल पचास हजार में
‘सरोगेसी’ से कोख भरवाना चाहता है  
उसी कोख में, जिसमे दर्द है
और कविता का चेहरा
एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा चाँद
फांकते हुए पीला है
काली धंसी हुए आँखों के बाहर
लगता है कुछ गीला है

लेकिन कविता है
कि मुक्त होना चाहती है बस
मरना नहीं चाहती
चाहती है कि आग लग जाए
इस सीलनदार दीवारों में
बिस्तर के नीचे दबे प्रेम पत्रों में
धूप और चाँद में
और राख ही राख हो जाए सब
ताकि कविता को मिले नया देह
और तैयार हो नयी जमीन
वही मानसूनी हरियाली वाली जमीन
जो फैली है सड़क के दोनों ओर
गाँधी सेतु से, झंझारपुर, भपटियाही,
फुलपरास होते हुए बनगाँव तक


(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, १७ जुलाई २०१४)   

23 comments:

  1. थूकने और गरियाने को विवश करती ....इतना ही नहीं मां-बहन की करते हुए हथियार उठाने को मजबूर करती दुर्व्‍यवस्‍थाओं व विसंगतियों में उपजनेवाली विकट मानवीय विवशता को कविता के माध्यम से प्रकट कर आपने जैसे मेरे ह्रदय के भाव को प्रकट कर दिया है। काश जीवन मानसूनी हरियाली सा हो पाता।

    ReplyDelete
  2. लेकिन कविता है
    कि मुक्त होना चाहती है बस
    मरना नहीं चाहती
    चाहती है कि आग लग जाए
    इस सीलनदार दीवारों में
    बिस्तर के नीचे दबे प्रेम पत्रों में
    धूप और चाँद में
    और राख ही राख हो जाए सब
    ताकि कविता को मिले नया देह.........nishbd karti rachna

    ReplyDelete
  3. वाह बहुत खूब लिखा बधाई के साथ आभार ।

    ReplyDelete
  4. यथार्थ के सागर में एक-एक शब्द पीड़ा भरी डुबकी लगाते ,तैरते -उथलते किसी हरियाली भरी टापू की तलाश में प्रयत्न कविता......

    ReplyDelete
  5. आज यही मंजर है। और कविता तो अपनी पीड़ा बयां कर देती है, पर उसे मुक्ति कहाँ ?
    कितना कुछ छिपा है आपके शब्दों में.……………

    ReplyDelete
  6. कविता बचाए रखना चाहती है उम्मीदों के पुल , मगर बयान भी करती है कटु वास्तविकता के पल !!

    ReplyDelete
  7. कविता कहती है कि दम घुट जाए तो अच्छा है... kaafi waqt ke baad kuchh alag kism ki kavita padhi .. achhi lagi

    ReplyDelete
  8. इस कडवी सच्चाई पर क्या लिखूं

    ReplyDelete
  9. एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा चाँद
    तीन टुकड़े नेह के, चार टुकड़े मेंह के
    फाँकते हुए
    असीरी के इस दमघोंटू माहौल में
    कविता कहती है कि दम घुट जाए तो अच्छा है...... बहुत ही सुंदर, अद्भुत !

    ReplyDelete
  10. यही संवेदना ,काव्य में ढल कर ,उत्तेजना बन जाती है - हालात को बदलने के लिए प्रेरित करती हुई ऍ

    ReplyDelete
  11. बेहतरीन
    बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ

    ReplyDelete
  12. बहुत ही अच्छी रचना. आपके एक एक शब्द झकझोर दे रहे हैं. सचमुच आपकी कविता पूर्णतः सार्थक है. बधाई आपको निहार जी

    ReplyDelete
  13. कविता ओ तो मरने भी नहीं देगा ये समाज ...

    ReplyDelete
  14. लेकिन कविता है
    कि मुक्त होना चाहती है बस
    मरना नहीं चाहती

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  15. संवेदनाओं को झकझोरती रचना...

    ReplyDelete
  16. खुबसूरत रचना....

    ReplyDelete
  17. निशब्द महसूस कर रही हूँ कविता के उस दर्द को
    बहुत ही मार्मिक रचना निहार जी,

    ReplyDelete
  18. एक एक शब्द अंतस को झकझोरता हुआ....बहुत मर्मस्पर्शी रचना...

    ReplyDelete
  19. जब तक आह है कविता का भाव है!
    अच्छी लगी कविता -

    ReplyDelete
  20. सच है आज के माहौल में कविता का भी दम घुट रहा है
    सार्थक रचना !

    ReplyDelete
  21. कविता का दर्द छलक आया है आपकी कविता में। बहुत सुंदर।

    ReplyDelete
  22. जो फैली है सड़क के दोनों ओर
    गाँधी सेतु से, झंझारपुर, भपटियाही,
    फुलपरास होते हुए बनगाँव तक

    .........बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ :)

    ReplyDelete