इन सीलन भरी दीवारों वाले
तमतृप्त वातायनहीन कमरे में
सिलवट भरे बिस्तर, और
यादों की गठरी वाली इस
तकिये पर
एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा
चाँद
तीन टुकड़े नेह के, चार टुकड़े
मेंह के
फाँकते हुए
असीरी के इस दमघोंटू माहौल
में
कविता कहती है कि दम घुट
जाए तो अच्छा है
नहीं गाये जाते हैं गीत
पिया मिलन के
सदर अस्पताल के बाहर
जहाँ पन्द्रह हजार में
अनावश्यक सिजेरियन
और पैंतीस हज़ार में
बेमतलब गर्भाशय हटाने की
तैयारी चल रही है
क्योंकि पेट में दर्द है
रेल रुका है, सड़क टूटा है
पटना, दिल्ली के रास्ते बंद
हैं
और सर्जिकल वार्ड के बाहर
पंद्रह कुत्ते
एक साथ हृदयगीत गा रहे हैं
वहीँ भटिंडा का दलाल पचास
हजार में
‘सरोगेसी’ से कोख भरवाना
चाहता है
उसी कोख में, जिसमे दर्द है
और कविता का चेहरा
एक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा
चाँद
फांकते हुए पीला है
काली धंसी हुए आँखों के
बाहर
लगता है कुछ गीला है
लेकिन कविता है
कि मुक्त होना चाहती है बस
मरना नहीं चाहती
चाहती है कि आग लग जाए
इस सीलनदार दीवारों में
बिस्तर के नीचे दबे प्रेम
पत्रों में
धूप और चाँद में
और राख ही राख हो जाए सब
ताकि कविता को मिले नया देह
और तैयार हो नयी जमीन
वही मानसूनी हरियाली वाली जमीन
जो फैली है सड़क के दोनों ओर
गाँधी सेतु से, झंझारपुर, भपटियाही,
फुलपरास होते हुए बनगाँव तक
(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट,
१७ जुलाई २०१४)
थूकने और गरियाने को विवश करती ....इतना ही नहीं मां-बहन की करते हुए हथियार उठाने को मजबूर करती दुर्व्यवस्थाओं व विसंगतियों में उपजनेवाली विकट मानवीय विवशता को कविता के माध्यम से प्रकट कर आपने जैसे मेरे ह्रदय के भाव को प्रकट कर दिया है। काश जीवन मानसूनी हरियाली सा हो पाता।
ReplyDeleteलेकिन कविता है
ReplyDeleteकि मुक्त होना चाहती है बस
मरना नहीं चाहती
चाहती है कि आग लग जाए
इस सीलनदार दीवारों में
बिस्तर के नीचे दबे प्रेम पत्रों में
धूप और चाँद में
और राख ही राख हो जाए सब
ताकि कविता को मिले नया देह.........nishbd karti rachna
वाह बहुत खूब लिखा बधाई के साथ आभार ।
ReplyDeleteयथार्थ के सागर में एक-एक शब्द पीड़ा भरी डुबकी लगाते ,तैरते -उथलते किसी हरियाली भरी टापू की तलाश में प्रयत्न कविता......
ReplyDeleteआज यही मंजर है। और कविता तो अपनी पीड़ा बयां कर देती है, पर उसे मुक्ति कहाँ ?
ReplyDeleteकितना कुछ छिपा है आपके शब्दों में.……………
कविता बचाए रखना चाहती है उम्मीदों के पुल , मगर बयान भी करती है कटु वास्तविकता के पल !!
ReplyDeleteकविता कहती है कि दम घुट जाए तो अच्छा है... kaafi waqt ke baad kuchh alag kism ki kavita padhi .. achhi lagi
ReplyDeleteइस कडवी सच्चाई पर क्या लिखूं
ReplyDeleteएक टुकड़ा धूप, दो टुकड़ा चाँद
ReplyDeleteतीन टुकड़े नेह के, चार टुकड़े मेंह के
फाँकते हुए
असीरी के इस दमघोंटू माहौल में
कविता कहती है कि दम घुट जाए तो अच्छा है...... बहुत ही सुंदर, अद्भुत !
यही संवेदना ,काव्य में ढल कर ,उत्तेजना बन जाती है - हालात को बदलने के लिए प्रेरित करती हुई ऍ
ReplyDeleteसुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी पंक्तियाँ
बहुत ही अच्छी रचना. आपके एक एक शब्द झकझोर दे रहे हैं. सचमुच आपकी कविता पूर्णतः सार्थक है. बधाई आपको निहार जी
ReplyDeleteकविता ओ तो मरने भी नहीं देगा ये समाज ...
ReplyDeleteलेकिन कविता है
ReplyDeleteकि मुक्त होना चाहती है बस
मरना नहीं चाहती
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
संवेदनाओं को झकझोरती रचना...
ReplyDeleteखुबसूरत रचना....
ReplyDeleteनिशब्द महसूस कर रही हूँ कविता के उस दर्द को
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक रचना निहार जी,
एक एक शब्द अंतस को झकझोरता हुआ....बहुत मर्मस्पर्शी रचना...
ReplyDeleteजब तक आह है कविता का भाव है!
ReplyDeleteअच्छी लगी कविता -
सच है आज के माहौल में कविता का भी दम घुट रहा है
ReplyDeleteसार्थक रचना !
कविता का दर्द छलक आया है आपकी कविता में। बहुत सुंदर।
ReplyDeleteजो फैली है सड़क के दोनों ओर
ReplyDeleteगाँधी सेतु से, झंझारपुर, भपटियाही,
फुलपरास होते हुए बनगाँव तक
.........बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ :)