यूँ ही चलती जीवन-यात्रा
जन्म से मृदा-मिलन तक
कभी हर्ष, कभी विषाद से भरी
विस्मय और अनिश्चितता पर
अड़ी
क्षण में जलती, क्षण में
बुझती
उमंगों और आशाओं की नैया
खेती
एक अनुत्तरित रहस्य बन
ह्रदय के अंतिम धड़कन तक
उद्वेलित करती हमारे मन को
यही जानने के लिए
कि ये जीवन क्यों है?
ये जीवन किसलिए है ?
कभी धर्म का अवलम्ब पाकर
कभी विज्ञान का संग पाकर
मन कूद जाता है
उस महाशून्य का पता पाने
जिसकी अंतर्धा का
कब से हो रहा अनुसंधान
फिर भी अज्ञात है
जीवन का ज्ञान
जो, धर्म और विज्ञान
अपनी व्याख्याओं से
पा चुके हैं एक किनारा
और इनके उनके पास जाकर
पता नहीं चलता
कहाँ छुपा है सत्य सारा
रहस्य निवर्तमान है जबकि
विज्ञान ने संदेह से परे
निर्धारित किया है
गुरुत्व बल के आधिपत्य को
ब्रम्हांड की आयु को
उसकी उत्पत्ति के घटनाक्रम
को
उसकी प्रसृति और संकुचन को
विखंडन और संलयन को
और यह भी कर दिखाया कि जीवन
स्त्री और पुरुष का संयोग
भर नहीं
पूर्वनिर्धारित दैवीय
आशीर्वाद नहीं
‘प्यूरीन’ और ‘पिरिमिडीन’
के संकेतों में आबद्ध
प्रतिपल अपनी श्रेष्ठता को
अभियानरत
अनश्वर उत्प्रेरक के मानिंद
खींचता जा रहा है मनुष्य
पीढ़ी दर पाढ़ी
अपने जीवन को
एक अनिश्चित समय की यात्रा
पर
लेकिन मन प्रत्यागत हो
उसी आदि-बिंदु पर
उलझ जाता है उसी ‘ब्लैक होल’
में
उसी ‘बिग बैंग’ में
जिसकी ब्रम्हांडीय आतुरता
को
समझ नहीं सका कोई आज तक
और धर्मों के अपने-अपने
आख्यानों में
साम्य है,
उस परमेश्वर के अस्तित्व
में
जिसे सदेह ना देखा, ना सुना
है
आस्था की डोर से बंध हमने
उसकी शक्ति को भजा और गुना
है
साम्य है,
स्वर्ग और नर्क के रास्तों
में
तथा इच्छित उद्देश्यों के
तहत किये
कृत्याकृत्य के मीमांसा व
अमीमांसा में
स्वर्ग प्राप्ति की जगायी आकांक्षा
में
साम्य है,
अपनी-अपनी परात्परता में
अपने परमेश्वर के लिए
प्रतिबद्धता में
उस ढाँचे के समरूपता में
जो देता है,
मन में जागे हर जिज्ञासा का
पता
उसी लोक में,
जो इस जीवन में नहीं मिलता
जो देता है,
जीवन में प्राप्त दुःख का
पता
उसी लोक में,
जो इस जीवन में नहीं मिलता
और मन पूछता ही रह जाता है
उस सर्वकल्याणी ईश्वर से
कि जगत-पिता होकर भी
किस तुष्टिकरण के निमित्त
यह संसृति?
जहाँ क्लेश-क्लांत है उनके
संतानों की गति
इन्हीं प्रश्नों के बीच
दिखता है
धर्म का व्यापक लक्ष्य,
मानव कल्याण के लिए
दुःख-दग्ध निस्सहाय
मन के व्योम में
दुःख-लभ्य दीप-कली से
जीवन उत्थान के लिए
चाहे परमेश्वर अभिदर्शन हो
ना हो
चाहे परमेश्वर-मर्शन हो ना
हो
फिर कौंध उठता है
मन में विज्ञान
परखनलियों से
एक ध्वनि सी आती है
जो उत्साहित हैं अपने
रसायनों से
उनकी व्याधिहारी शक्ति से
जो दिखाते अपना ईश्वरीय रूप
जब रोगी तन में जाकर
भिड़ते वो आयुवर्धन को
या किसी मृत से शरीर में
फूंकते नवजीवन को
ईश्वर और विज्ञान के
इसी दो पाटों के बीच
महाशून्य को खोज में
उद्विग्न मन
एक नियत आवृति से जाता घूम-घूम
और मैं अपने हाथों को
चूम-चूम
यत्न करता हूँ,
नव यौगिक निर्माण का
कभी विज्ञान से, कभी
महाशून्य से
पी लेता हूँ जीवन-रस की दो
बूँद
और फिर उसी महाशून्य की
गहराइयों में
खो जाता हूँ आखें मूँद
(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, १५ दिसम्बर
२०१३)