ज़िन्दगी के रंग
गाँव के अन्दर, शहर के बीच और देश के बाहर
कभी ठेस खाकर कभी प्यार पाकर
ज़िन्दगी की राह पर चलते सँभलते
कभी लड़खड़ाते , कभी ठीक चलते
ज़िन्दगी ने जीवन के कई रंग देखने को दिए
ज़िन्दगी ने बहुत कुछ सीखने को दिए
घूंघट गिरी थी, वो उठ गयी फिर हट गयी
लीपा सिन्दूर हटा और फिर ज़ुल्फ़ हट गए
माँ का दूध हटा , बोतलों ने जगह ली और फोर्मुले आये
रिश्तों की परिभाषाएं बदली, फूल हावी हो गए ज़िन्दगी में
अस्तपताल में दम खींचते बाप को एक गुच्छा फूल काफी था सुधि लेने को
और मैं ठेठ गंवार! हमने तो बस फूलों को तोडना जाना है
ना शादी की रस्में, न उनका प्रयोजन
कोई जन्म ले तो ले, भगवान तो देख ही लेंगे उसे
और ज़िन्दगी की रफ़्तार ऐसी तेज़
कि ज़िन्दगी दौड़ते-दौड़ते बीच में ही गुम हो गयी कहीं
पैकेट में खाना, एक हाथ में पेय और दूसरा हाथ स्टीयरिंग पर
१०० किलोमीटर की रफ़्तार में दौडती ज़िन्दगी
और तभी कौंध जाता है यादों में चाँदनी चौक का वो चाटवाला
शाहजहाँ रोड का वो तिवारी पान भण्डार
और खान मार्किट में बरिस्ता की कॉफ़ी
परखनलियों में रसायनों का बदलता रंग
यार दोस्तों का मजमा और बेफिक्री के दिन
और उससे भी पीछे धान के वो हरे पीले खेत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत
बैलों के गले की घंटी का बजता वो मधुर संगीत
पर रफ़्तार की ज़िन्दगी ने ज़िम्मेदारी दी
रफ़्तार की ज़िन्दगी ने आत्मविश्वास दिया
ज़िन्दगी को उन्मुक्त होकर बहते रहने
प्यास हरते रहने की तालीम
कोई ज़िन्दगी पूरी अच्छी नहीं,
कोई ज़िन्दगी बिलकुल बुरी नहीं
ज़िन्दगी की प्यास तो कभी बुझती नहीं
ज़िन्दगी अच्छा या बुरा बनाना तो अपने हाथ में है
धीमे चलकर संतुलन बनाना आसान है
पर रफ़्तार में संतुलन बना के चलना एक सीख
पर जो छूट गया बहुत पीछे वो है मेरा गाँव
उसकी अलमस्त हवा, रेडियो पर बजता संगीत
आटे के मिल की हर शाम वो पुक-पुक
और शाम को लौटते बैलों का गले मिला कर चलना
स्कूल से लौटने के वक़्त गली के मुहाने पर खड़ी मेरी माँ
और हुरदंग मचाते लड़कपन के साथी
लालटेन की रौशनी में कीट-पतंगों के साथ ज्ञान अर्जन की जंग
कैलकुलस की छान बीन में बावन पुस्तिकाओं के रंगे पन्ने
और अपने पतंगों के लिए हाथ से मांझा किये धागे
जीते पूरे पांच सौ कंचे
और अब वही गाँव की मिटटी,
जिस का कण-कण मेरे रुधिर होकर बहता है,
वापस लौट आने को कहती है
और सेंट्रल साइंस लाइब्रेरी के बाहर का चायवाला
२/३ के लिए पूछता है बार बार
पर कोसी नदी की घाट से दूर कूपर नदी की घाट बैठ
मैं कविता लिखता जा रहा हूँ
मैं कवि बन गया हूँ!
(निहार रंजन, सेंट्रल, २३ फ़रवरी २०१३ )