Monday, May 31, 2021

मैं कर्जदार हूँ

 मैं कर्जदार हूँ 

मैं अपनी मिट्टी का बेटा हूँ 


बारह हजार किलोमीटर पार  तक 

उस मिट्टी के गंध की बेचैनी थी 

रात में,  दिन में, जागते हुए, नींद में सोये हुए 

आसान नहीं था , सबकी  अनुसनी करना 

आसान नहीं था, डॉलर की गठरी पर 

चुपचाप, सर छुपा कर सो जाना 


क्योंकि 

मैं कर्जदार हूँ 

मैं अपनी मिट्टी का बेटा हूँ 


समय के मसले इस क्षणभंगुर संसार में 

जिसमे संबंधों, परिवार और समाज के पार कुछ भी नहीं 

जिसमे ये महल, ये दर-ओ-दीवार , कृत्रिम  सुखों की छाँह 

सड़ते हुए लाशों की शरणस्थली !!

अर्थहीन हैं, ये जीवन, ये अर्थ 

सारा जीवन है व्यर्थ

अपनी मिट्टी से दूर 

जीना बेमानी है 

क्योंकि 

क्योंकि 

मैं कर्जदार हूँ 

मैं अपनी मिट्टी का बेटा हूँ 


जाओ, निद्रामग्न होकर सुस्त हो जाओ 

डेवनपोर्ट हाउस की रानियों के साथ नपुंसक होकर  

माँ की छाती का दूध 

बिकता नहीं बाजारों में 

तुम अदा नहीं कर पाओगे 

ये कर्ज 

माँ, मिट्टी, समाज, अपना गाँव 

कहाँ मिलता है ऐसा छाँव 

 तुम कर्जदार हो 

मैं कर्जदार हूँ 

लेकिन 

मैं अपनी मिट्टी का बेटा हूँ 


 मुझे कोई चिंता नहीं अब 

एक आवाज भर दूर हूँ 

अपने गाँव से , अपनी मिट्टी से 

अपने बाप से, अपने बेटे 

अपनी माँ से, अपनी भार्या से 

 समाज से, सरोकार से 

'कनक महल' से 

'अस्सी' से, 'कोतवाल' से 

रूमी दरवाजे से, अमीनाबाद से 


लेकिन फिर भी 

मैं कर्जदार हूँ 

अपनी मिट्टी का

आने वाली नस्लों का 


-ओंकारनाथ मिश्र

(वृन्दावन, ०१ जून २०२१ ) 

Saturday, April 17, 2021

कहाँ है निगहबान??

लुटता हुआ शहर, सिमटा हुआ मकाँ 

लोग ये पूछे- "कहाँ  है निगहबान" 


वक़्त की कालिख में घुला ज़िन्दगी का रंग 

ये कौन सा कातिल है  कि  सब लोग-बाग़ दंग 


सूनी पड़ी है बस्तियां,  आबाद शमशान 

बेख़ौफ़ आवारा है ये मौत का  सामान 


चारबाग़, तेलीबाग ,ऐशबाग पस्त 

छोड़  इस शहर को चलें कूच करें दश्त 


हर रुख हुआ है ज़ब्त, क्यों  मौत का निशाँ 

लोग ये पूछे- "कहाँ  है निगहबान" 

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ओंकारनाथ मिश्र 

वृन्दावन, १८ अप्रैल २०२१ 

Tuesday, April 6, 2021

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

 

समय लगता हो गया है स्थिर

व्याप्त चारों ओर हो चुका तिमिर

विथित मन में आये फिर से वितामस

कर रहा हर यत्न, दृढ है स्व-साहस

सोचता प्रतिक्षण, देखता हूँ व्योम को

रवि उग जाता फिर, जब होता अवसान है 

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

आती रहती रह-रह कर एक प्रतिध्वनि 

कुछ भी होती नहीं जीवन में सत्गामिनी

रूप, यौवन, खिला सूरज, हर्ष, क्रंदन 

सतत तो रहता नहीं स्वयं अपना तन

फिर भी मन में रहती जागृत लोभ-ग्रंथि

होती अर्जन की अभिलाषा, शेष जब तक प्राण है  

अपने ही अंतर का यह एक गान है


होती नहीं ज्वलित वेदना अब स्वानंतर

फिर भी एक टीस होती उदीप्त निरन्तर

जलधि सम बाधाओं का विस्तार है

फिर भी मन ने मानी नहीं अभी हार है

ओज है, उर्जा है, स्वप्न की उड़ान है

साधूँगा तब तक निशाना, जब तक तीर कमान है 

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

वो क्षुधा हुई बनी अब भी  उदर में

ये तो है पहली लड़ाई जीवन समर में

भ्रांत मन हैं, फिर भी है आशा विराट

अंत तो होगा ही एक दिन यह विभ्राट

यह जरूरी है बहुत मन मीन सम हो चंचला  

और मचलता ही रहे जब तक होता उत्थान है

अपने ही अंतर का यह एक गान है

 

(ओंकारनाथ मिश्र, सेंट्रल, २४-९-२०१२ )

 


 

 

Sunday, January 10, 2021

नाग-यज्ञ

वो बिल्ली  दूध का स्वाद  जानती है   

एक काला साँप  उसके पास है  

(साँप में लोच स्वाभाविक है )

जांघ पर लिपटा मृत सांप 

नहीं जानता है कोई आदिम स्वाद 

अथवा गली के मोड़ पर क्रीड़ारत दो श्वान 

नहीं जानते हैं कुछ भी 


काला सांप- विवर से ज़हर चख कर आ चुका है 

उसे अब मौत का कोई ख़ौफ़  नहीं है 

विवर है, जहर है 

लेकिन मौत नहीं है.


बुझे  हुए  लैंप पोस्ट के नीचे 

एक आवरण में आवृत 

बिल्ली म्याँउ नहीं करती 

साँप जहर मांगता है 

लैंप पोस्ट बुझा है 


समय ईमानदार है 

लैंप पोस्ट बुझा है 

राजा जनमेजय

नए  नाग-यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं. 


(ओंकारनाथ मिश्र, वृंदावन , १० जनवरी २०२१)