फिरूँ यत्र-तत्र मैं तृषित अधर
हे कली-आली! मैं श्याम भ्रमर
मैं सब चितवन से दूर, श्रांत अपने गह्वर में
मैं विस्मृत था, बेनूर, छिपा इस जग-चर्चर में
जब दहक रही थी अग्नि मृदा में, और पवन में
हो क्षुधा-त्रस्त, मैं धधक रहा था अपने उदर में
जब बरस रहे थे मेह, भरे उस तिमिर-गगन में
मैं भाग रहा था चिंतातुर ,इस जीव-समर में
फिर विपल्व आन पड़ा चहुँदिश जब एक ही क्षण में
अस्तित्व-भीरु, मैं हो याची, हुआ नमित “प्रवर”
में
पर समय ठहर कर कब रूकता है?
हो वांछनीय या हो दारुण, मन-मर्जी से चलता है
जब चला हवा का झोंका इस तिमिर-गगन में
हुए कितने मुख सस्मित, बस सनन-सनन में
बादल भागे सब छोड़-छाड़, तभी, तत्पल
पा किरण, अंकुरित बीज बना बिरवा कोमल
पर्ण, तना धर खड़ा हुआ लिए जीवन-विश्वास
पूरब से बहका मंद-मंद फिर मधु-वातास
पत्ते मलरे, शाखें झूमी, कलियाँ फूटी
जीवन की सारी दुश्चिंता, भूली भटकी
कुसुमों ने रंग धरे, सौरभ से तृप्त हुए
मैं इस हलचल से दूर पड़ा था सृप्त हुए
फिर छू ही गयी सौतन बयार
मैं तुरावंत, पर को पसार
सान्निध्य में इन पंखुड़ियों के
आ चला करने पीयूष-पान
मैं मरंदपायी, हूँ रस-चोषी
जो चाहें! गायें निंदा-पुराण
मैं
“सुमन-प्रसू”, मैं “युग्म”-कार
उस प्राण-सुधा बिन निराहार
दुनिया मेरी, वो सूक्ष्म-विवर
हे कली-आली! मैं श्याम भ्रमर
(ओंकारनाथ मिश्र , वैली व्यू, २४ अगस्त २०१७)