Friday, December 25, 2020

निधि बोली — दैट इज सो क्यूट यार !

 () प्राक्कथन 

 मन्द-मन्द प्रवाह अनिल का 

रूप गगन कामनमोही रतनार 

सौरभमयी पथों पर चहुँदिश  

बिखरा हुआ था हरसिंगार 

निधि बोलीदैट इज सो क्यूट यार !

 

() प्रस्तावना 

 हृदय-रिक्त गए शहर में 

भरे कुलांचे डगर-डगर में 

दो ही मौसम: पतझड़, सावन 

बाजी पायल छन-छन-छन-छन 

स्व-मृदा हुई स्मृतिशेष 

सबके अरमानों की हुई आहुति पेश

उसने हँस के कह दी- स्वीटी

सब हैं कड़वे, हम ही मीठी 

कल्पित मन के स्वप्न हुए साकार

मन में मोद, सिर गोद, तन में हुई  झनकार 

उर्मियों से मिली उर्मियाँ, हो गयी ललकार 

युग्मेच्छित नयनों में छा गया अंधकार 

निधि बोलीदैट इज सो क्यूट यार !

 

() कथा 

 कितने मुदित  हुए थे सब जन 

जब आया था लाल 

मनवांछित संतान मिला था 

हुआ था उन्नत भाल 

किलकारी गूँजी थी घर में 

अहा! वो स्वर्णिम-काल 

उम्मीदें बढ़ती ही रह गयी 

जैसे गुज़रे साल 

कि यौवन आन पड़ा!

और निमिष-मात्र में  हो गया कमाल 

उर का दूध, प्रेम स्वजनों का 

हो गया ज्यों बेकार 

पिता स्तब्ध

सिकुड़ा उनके वक्षों का विस्फार 

और उस पार 

निधि बोलीदैट इज सो क्यूट यार !



() सार 

 पिता मूक, माता बधिर 

पितर हुए लाचार 

कोई जीता, कोई गया हार 

कभी बजी शहनाई, कभी बजा सितार 

निधि बोलीदैट इज सो क्यूट यार !

 

नोट- क्रिसमस के दिन निधि को सूली चढ़ाना ध्येय नहीं. ही यह ध्येय है कि  निधि समाज की नुमाइंदगी करती है. समय अहिल्या, सीता और सावित्री की साक्षी रहेगी और सृष्टि उनके त्याग से प्रकाशित रहेगी।  

-ओंकारनाथ मिश्र 

(वृन्दावन, २५ दिसंबर २०२०)

Sunday, August 23, 2020

फिर से बोसा

 कोसा?? तो ले फिर से बोसा 


जब हाथ धरा तो फिर ये क्यों

एक चंचल लाल की चाल ही है

माना ये  सच, बदहाल सही  

पर बदहाली की यही ख़ुशी 

कितने चितवन और तृष्ण दृगों में देखो 

मिलती है या रूकती रूदाद सही 


कोसा?? तो ले फिर से बोसा 

 

(ओंकारनाथ मिश्र , वृन्दावन, २४ अगस्त २०२०) 


Sunday, May 17, 2020

भोर सुहानी

एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


एक लम्बी रात का सूनापन
और भोर सुहानी की आशा
कितनी काली वो रातें थी
आली की खाली बातें थी
बहका सा फिरता रहता तब
जब बंद पड़ी थी राहें  सब

मैं भी कितना आवारा  था


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


वो तो जग की रजधानी थी
लेकिन बस एक कहानी थी
अलकों का लम्बा घेरा था
कुछ भी लेकिन ना मेरा था
मेरी रातों  का यौवन था
और मन मेरे बस मधुवन था


मैं घरवाला बंजारा था


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


सबने टोका, ओ! मतवाले
कितने उतरे तुझमे प्याले
नयनाभिराम वो दृश्य नवल
सुध-बुध खो के जिसमे चंचल
मैं डूब-डूब  इतराता था
बस प्रेम सुधा ही पाता था


सब कहते थे, नाकारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


बंधु -बांधव तव मित्र सखा
सबसे कड़वा ही घूँट चखा
उस पार खड़ी बेचारी थी
तन से मन से सब वारी थी
मैं छोड़ उसे कायर होता 
और देख उसे कातर होता


ना और कोई भी  चारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


ना कोई खड़ा था प्रेम के हित
और प्रेमी चारो खाने चित
नर समय-पतित जब होता है
कोई उसके लिए ना रोता है
उस विप्लव सी लाचारी में
दावानल सम दुश्वारी में  


ना यारी थी, न यारा था


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


वो एक नदी, चौड़ी, गहरी
बरसों की वेगमयी लहरी
जाता कैसे, मैं, लेता थाह
उन्मुक्त उर्मि,कलकल प्रवाह 
अभिलाषी मन में तुमुल तान
ठहरूँ या कर लूँ प्रयाण


मिलता ना कूल किनारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


धब्बा गन्दा , प्यारा चंदा 
अपने रब में खोया बंदा 
शीतल प्यारी  जुन्हाई थी 
हिवड़े में पीड़ समाई थी 
विस्तृत वितान था अंतहीन 
सय्याद चतुर, हम भी प्रवीण 


पंछी  ने  पंख  पसारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था


ये जो रजनी थी व्यथा-व्याप्त 
होनी थी एक दिन वो समाप्त
रातों का बस इतना प्रसार
मन में भय का हो सतत वार
पर कब तक भोर रहे  छुपकर
जब प्रेम सत्य, हो कर्म प्रखर 


अंतः-रव का ललकारा था 


एक चंदा था, ध्रुवतारा था
लगता वो हद से प्यारा था

अब लगी अंक विरही-आली
रद-आरिज में लाली-लाली  
सिमटन, सिहरन, प्रमदन, सकुचन 
मधु अर्क भरी शीरीं प्याली 
चितवन की सूनी राह में स्वन 
झन, झनन,झनन, झन, झनन,झनन 
  
अब लौट गया झनकारा है 


एक चंदा है, ध्रुवतारा है 
लगता वो हद से प्यारा है 



(ओंकारनाथ मिश्र , वृन्दावन, १७ मई २०२० )