सर कलम करके वो आये हाथ अपने धो लिए
था लिखा रोना हमारे भाग में हम रो लिए
कह रहे थे सबसे वो करते हुए ज़िक्र-ए-रहम
तुम मनाओ खैर लेना चार था हम दो लिए
साक्ष्य भी था रक्त भी, सिसकी, किलोलें, सब के
सब
जांच में पर थी सियासत सब के सब ही खो लिए
है शिकायत हाथ में जायें मगर हम किसके पास
वक्त का एक बोझ है कहकर अभी हम ढो लिए
पट्टी जिनके आँख पर हाथों तराजू जिनके है
मुख खुलेगा उनका जब तक कितने रुखसत हो लिए
हम गरीबों की सदायें शायद जगेंगी एक दिन
सोचते ही सोचते लो आज भी हम सो लिए
(ओंकारनाथ मिश्र, हरिद्वार, २० जुलाई २०१५)