वहीँ पर खड़ा है
भरा मेरा गाँव
जहाँ बहती रहती है
कोसी की धारा
यहाँ देख आया वहाँ देख
आया
ना जाने कहाँ – कहाँ देख आया
अँधेरे में देखा, उजाले में देखा
दिखा ना कहीं
पर वहां सा नज़ारा
आहा! मेरा गाँव,
वो कोसी की धारा
मैं जन्मा जहाँ पर गज़ब है वो धरती
जिसे सोच कर ही बिजली
सी भरती
उसी मिटटी से मेरा
रग-रग भरा है
उसी मिटटी पर हूँ मैं फिरता मारा
आहा! मेरा गाँव, वो कोसी की धारा
चला था सफ़र पर कि जग देख लेंगे
था अनजान जंगल ही
जंगल मिलेंगे
था अनजान इससे मिलेगी ना मोहलत
बस बाघों और व्यालों की होगी सोहबत
बचने उनसे दिवस से
निशा तक
भागा मैं पूरब
से पच्छिम दिशा तक
पर बढती रही
जंगलों की ये सीमा
और बढ़ते गए
ये
वन
कोणधारी
उसी वन में मुझको दिखे कई
वानर
था जिनको नचाता छुपा एक मदारी
बहुत मैंने ढूँढा मिले नेक हृदयी
पर जो भी मिला
वो निकला शिकारी
यही चल रहा
था की सहसा अचानक
झपट मुझपे आया था एक हिंस्र चीता
दबाया था उसने
मेरी ग्रीवा दम से
बड़ा ही भयावह क्षण था, जो बीता
दया भीख माँगा, दिया अपना परिचय
‘मैं मिथिला का बेटा, बहन मेरी सीता’
मगर यह युक्ति नहीं काम आई
तो अपने अंदर के
बल को जगाया
झटके में उसको ज़मीं पर
गिराकर
उसके चंगुल से मैं निकल आया
आगे बढ़ा तो मिली ढेर नदियाँ
कभी तैर आया, कभी
बस
निहारा
पर मिल ना सका कहीं
वो किनारा
आहा! मेरा गाँव, वो कोसी की
धारा
वो धरती जहाँ पर
कभी
बुद्ध आये
फिर आ गए लक्ष्मीनाथ गोसाईं
तप के ताप
की
शक्ति से जिनके
मेरे गाँव में
रहती शान्ति
है छाई
वही पास रहती है जागृत सतत
रौद्र-रुपी शक्ति की माँ, उग्रतारा
आहा! मेरा गाँव, वो कोसी
की धारा
मुझे इसकी चिंता तनिक भी नहीं है
कहाँ पर बीतेगा ये
मेरा जीवन
हो जंगल या पर्वत
या कोई मरुथल
हँसते गुज़ारूंगा साँसों का यह रण
मगर इसकी चिंता है मुझको सताती
कि जब भी मेरा चरम-काल
आए
मेरे बंधु-बांधव
मुझे
ठौर देना
ये काया वहीँ पर लौटा दी
जाए
अगर पुनर्जन्म हो कभी मेरा
तो जन्मूँ, फिर से वहीँ पर
दुबारा
आहा! मेरा गाँव, वो कोसी
की धारा
(निहार रंजन, सेंट्रल, ९
नवम्बर २०१३)