Saturday, January 11, 2025

मृत्यु का स्वीकार!

 मृत्यु का स्वीकार!


रिक्त मन की शून्यता में वेदना का वार होगा 

चाँद, सूरज सब रहेंगे, अब नहीं वह यार होगा 


ढीठ मन है, ढीठ जीवन, चल पड़ेगा हार कर 

पोंछ लेंगे सारे आँसूं, मृत्यु को स्वीकार कर 


विवश होकर विरह की विस्तीर्णता भर अंक में 

फिर समा जाएंगे थक कर इसी 'राजा-रंक' में  


क्या करेंगे ले जुन्हाई, जब की सूरज खो गया है 

यूँ पृथक कर, निमिष भर में, वही अपना सो गया है 


बारहा फूटें ये किरणें, बारहा गुजरे प्रहर

सत्य यह है, युक्त जो था, वो गया हमसे बिछड़ 


छोड़ सारे कहकहे, निर्विण्ण मन में करने स्वन  

जा चुका है मित्र मेरा, त्याग कर जीवन का रण 


अब  यही पृच्छा रहेगी, क्या कभी अभिसार होगा ?

फिर कभी 'कल्पित नगर' में साथ मेरे यार होगा ?


 (दिवंगत मित्र दिलीप की स्मृति में यह शब्द-तर्पण)


ओंकारनाथ मिश्र, वृन्दावन, लखनऊ 



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