Friday, November 14, 2014

अस्तित्व बोध

कुछ अधूरे शब्द
कुछ अधूरी ग़ज़लें
कुछ अधूरी कवितायें
यह अधूरा होश
शब्द, स्वप्न, साँसों में उलझा मन
और मन का यह अधूरापन
जो मेरी ताकत है
मेरी आशा है
मेरी प्रेरणा है
मेरी साधना है

आज लौट आया हूँ
उसी नदी के तट पर
पर नदी आगे बढ़ चुकी है 
तुम्हारी तरह
और मैं रह गया हूँ
तट की तरह, वहीँ पर 
जबकि मैं रवहीन हूँ
किसी और लोक में लीन हूँ 
यह तट चाहता है सुनना
फिर तुम्हारी पदचाप को
फिर तुम्हारे गीत को, आलाप को 

चाहता हूँ  दुबारा चल-चल कर
भरता रहूँ तुम्हारे पद-चिन्हों की रिक्तता को  
बताता रहूँ तट को बार-बार
उसकी असमर्थता के बारे में
जो नहीं देख पाता है
तुम्हारा अस्तित्व, मेरे अस्तित्व में 


(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, १६ फ़रवरी २०१४)

11 comments:

  1. गजब अनुभूति है। वाकई अधूरा अहसास ही जीवन का बचा है। बहुत गहन गम्‍भीर और अपनी सी लगी यह शब्‍दावली।

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  2. मानव मन की सुंदर रेखाचित्र

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  3. प्रभावी करता अंदाज़

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  4. behad bhawpurn... umda rachna...

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  5. बताता रहूँ तट को बार-बार
    उसकी असमर्थता के बारे में
    जो नहीं देख पाता है
    तुम्हारा अस्तित्व, मेरे अस्तित्व में
    ...लाज़वाब...दिल को छूती बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  6. नदी के साथ तट नहीं जा सकता उसकी नियति में है वहीं रुक जाना न की सागर में विलीन हो जाना .... कर्तव्य के रास्ते प्रेम से जुदा होते हैं ...
    गहरी भावपूर्ण अभिव्यक्ति ...

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  7. सुंदर भावपूर्ण रचना .....

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  8. एक शांत सी विकलता की कथा..अति सुन्दर..

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  9. ये अधूरा पन ही तो है जो हमें पूर्णत्व के लिये प्रेरित करता है। जहां जहां नदी है वहां तट भी है, चाहे वह हमारा ना हो।

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  10. अकेले में जब ह्रदय सब कुछ समर्पण कर दे तो....
    तब ऐसा ही कुछ उमड़ता है

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  11. पुन: रसास्वादन ..

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