गतिमान पथिक, सतत विकस्वर
सुख-निरिच्छ, केन्द्रित
लक्ष्य पर
किन्तु जगत के मोह बंधन से
पग-पग मिलते प्रलोभन से
मिथ्या के मोहक छद्म आवरण
से
तन्द्राल सुमति के अलभ्य
जागरण से
विवश है विकारों के सहज वरण
से
मर्त्यलोकी पथों के सुलभ
कंटकों पर
बचता हुआ, बिधता हुआ
चला जा रहा है, चला जा रहा
है!
त्वरण तेज होता हुआ जा रहा
है
नहीं शेष क्षण जो विचिन्तित
हो जीवन
करे मन मनन तो नयन हो
विचक्षण
प्रलोभन से यंत्रण तो निश्चित
क्षरण
हो अदना मनुज कोई इस धरा का
या अर्जित किया है जिसने
तपोबल
श्रृंखलित मन भी हो जाता विश्रृंखल
लगा दौड़, कुपथ पर देता है
चल
लोभ से लुभाते, लार गिराते
गिरा जा रहा है, गिरा जा
रहा है!
कोई तुच्छ भेटों से ही
प्रफुल्लित
कोई शरीर सुख को डोल जाता
कोई स्वर्ग लोलुप वृथा कर समय
स्वप्नों में खोकर जीवन
बिताता
जीवन पथ पर चलते पथिक को
जरूरी बहुत है ये जान जाना
जो इच्छित हो जीवन अवसाद के
बिन
दंत-पिंजरे में जिह्वा का
रखना ठिकाना
रहा है जो रक्षित इन्हीं
कंटकों से
बढ़ा जा रहा है, बढ़ा जा रहा
है !
(निहार रंजन, सेंट्रल, १८
सितम्बर २०१३)