क़द्र रौशनी की
जिन आँखों ने देखे थे
सपने चाँद सितारों के
वो जल-जल कर आज अग्नि
की धार बने हैं
सपने हों या तारें हों, अक्सर
टूटा ही करते हैं
हो क्यों विस्मित जो टूट आज वो अंगार बने हैं
अंगारों का काम है
जलना, जला देना, पर आशाएं
जो दीप जलें उनके तो
रौशन मन संसार बने हैं
संसार का नियम यही कुछ
निश्चित नहीं जग में
किस जीवन की बगिया
में अब तक बहार बने हैं
वो बहार कैसी बहार, बहती जिसमे आँधी गिरते ओले
उस नग्न बाग़ का है
क्या यश, जो बस खार बने हैं
ये खार ही है सच जीवन का, बंधुवर मान लो तुम
जो चला हँसते इसपर जीवन
में, उसकी ही रफ़्तार बने है
रफ़्तार में रहो रत लेकिन,
तुम यह मत भूलो मन
क़द्र रौशनी की हो सबको,
इसीलिए अन्धकार बने हैं
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२६-२०१३)