जल! तेरी यही नियति है मन
जीवन पथ कुछ ऐसा ही है
चुभते ही रहेंगे नित्य शूल
हो सत्मार्गी पथिक तो भी
उठ ही जाते हैं स्वर-प्रतिकूल
छोड़ो उन
औरो की बातें
भर्त्सना करेंगे तेरे ही “स्वजन”
जल! तेरी यही नियति है मन
एक मृगतृष्णा है स्वर्णिम-कल
होंगे यही रवि-शशि-वायु-अनल
होंगे वही सब इस मही पर
शार्दूल, हंस, हिरणी चंचल
हम तुम न रहेंगे ये सच है
कई होंगे जरूर यहाँ रावण
जल! तेरी यही नियति है मन
हो श्वेत, श्याम, या भूरा
है पशु-प्रवृत्ति सबमे लक्षित
ब्रम्हांड नियम है भक्षण का
तारों को तारे करते भक्षित
है क्लेश बहुत इस दुनिया में
हासिल होगा बस सूनापन
जल! तेरी यही नियति है मन
त्रिज्या छोटी है प्रेम की
उसकी सीमा बस अपने तक
ऐसे में शान्ति की अभिलाषा
सीमित ही रहेगी सपने तक
मेरा हो सुधा, तेरा हो गरल
फिर किसे दिखे अश्रुमय आनन
जल! तेरी यही नियति है मन
है प्रेम सत्य, है प्रेम सतत
पर प्रेम खटकता सबके नयन
आलोकित ना हो प्रेम-पंथ
करते रहते उद्यम दुर्जन
आनंद-जलधि है प्रेमी मन
यह नहीं
जानता “दुर्योधन”
जल! तेरी यही नियति है मन
(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१-२०१३)