ना कोई ‘प्रील्यूड’, ना ‘इंटरल्यूड’
बस शब्दों का संगीत है 
कुछ ध्वनियाँ ह्रदय से, नभ
से 
शेष इसी दुनिया के ध्वनियों
का समुच्चार है 
आपका बहुत आभार है 
बीड़ियाँ सुलगती रही और
ह्रदय―
अविरत, निर्लिप्त 
प्रेम, परिवार और समाज 
कुछ स्याह अँधेरा, कुछ धुँआ
अंध-विवर से दूर दीखता एक
वातायन 
जीवन, संघर्ष या सामूहिक पराजय
यह किसने तय किया कि सफलता 
या चाँदनी की निमर्लता 
सबका ध्येय नहीं, प्रमेय
नहीं 
तो क्या मृत्यु का वीभत्स रूप
रोक सका है 
उस ध्वनि को जो छनती है
अंतःकरण में 
क्या उसकी सीमाएं  
तय कर सकता है काल
चम्बल और धौलपुर के बीच के
ढूहों में 
रुक सकती है वह ध्वनि?
वह मेरी और आपकी आवाज़ है 
जीवन से उपजी आवाज है 
वह दूर जा सकती नहीं 
जायेगी नहीं 
(उसी मुरैनावाले के प्रति
जिसकी पुकारती हुई पुकार क्या-क्या पुकारती है)
(ओंकारनाथ मिश्र, दिल्ली, ३
अक्टूबर २०१५)