Tuesday, March 24, 2020

फुर्सत नहीं थी

फुर्सत नहीं थी 

कहनी थी, मुसलसल बात, मगर फुर्सत नहीं थी 
सफर चलता रहा, सरे-रात, मगर फुर्सत नहीं थी 

मुहब्बत में, असीरी का, बयाँ  हमसे ना पूछो 
उलझे थे कई मसलात, मगर फुर्सत नहीं थी

यही एक खेल चलता था सुबह के पौ से शब तक
कभी शह था, कभी थी मात, मगर फुर्सत नहीं थी

दयार-ए -ग़ैर  में तश्नालबी थी एक रवायत 
चाहे हो बादलों का साथ, मगर फुर्सत नहीं थी

वो फिर हँसती रही , कहती रही , कहती रही  
यही कि, सुन लो मेरी बात, मगर फुर्सत नहीं थी

दिखाया ‘ख़ाक’ को फिर से  हयात-ऐ-ग़म ने जलवा
लगाया था किसी ने घात,  मगर फुर्सत नहीं थी

-ओंकारनाथ मिश्र 
(वृंदावन , २५ मार्च २०२०)

Friday, March 23, 2018

भ्रमरगीत


फिरूँ यत्र-तत्र मैं तृषित अधर
हे कली-आली! मैं श्याम भ्रमर


मैं सब चितवन से दूर, श्रांत अपने गह्वर में
मैं विस्मृत था, बेनूर, छिपा इस जग-चर्चर में
जब दहक रही थी अग्नि मृदा में, और पवन में
हो क्षुधा-त्रस्त, मैं धधक रहा था अपने उदर में    
जब बरस रहे थे मेह, भरे उस तिमिर-गगन में
मैं भाग रहा था चिंतातुर ,इस जीव-समर में
फिर विपल्व आन पड़ा चहुँदिश जब एक ही क्षण में
अस्तित्व-भीरु, मैं हो याची, हुआ नमित “प्रवर” में


पर समय ठहर कर कब रूकता है?
हो वांछनीय या हो दारुण, मन-मर्जी से चलता है

जब चला हवा का झोंका इस तिमिर-गगन में
हुए कितने मुख सस्मित, बस सनन-सनन में
बादल भागे सब छोड़-छाड़, तभी, तत्पल 
पा किरण, अंकुरित बीज बना बिरवा कोमल
पर्ण, तना धर खड़ा हुआ लिए जीवन-विश्वास
पूरब से बहका मंद-मंद फिर मधु-वातास
पत्ते मलरे, शाखें झूमी, कलियाँ फूटी
जीवन की सारी दुश्चिंता, भूली भटकी

कुसुमों ने रंग धरे, सौरभ से तृप्त हुए
मैं इस हलचल से दूर पड़ा था सृप्त हुए
फिर छू ही गयी सौतन बयार
मैं तुरावंत, पर को पसार
सान्निध्य में इन पंखुड़ियों के
आ चला करने पीयूष-पान
मैं मरंदपायी, हूँ रस-चोषी
जो चाहें! गायें निंदा-पुराण  

मैं  “सुमन-प्रसू”, मैं “युग्म”-कार
उस प्राण-सुधा बिन निराहार
दुनिया मेरी, वो सूक्ष्म-विवर
हे कली-आली! मैं श्याम भ्रमर


(ओंकारनाथ मिश्र , वैली व्यू, २४ अगस्त २०१७)

Friday, August 18, 2017

जब हवा का झोंका चलता है

घन घनघोर घिरे अंबर
जड़ संभल हुआ तुरत सत्वर
ढन ढनन ढनन गूंजा चहुँओर
बिजली कड़की फिर मचा शोर
कृषको ने सोचा आ ही गयी
और बैठ गए धर हाथ-पाथ
संचित शंका का हो विनाश
कुछ मेह फटे, हो सलिलपात
पर नियति की लीला ऐसी, वो धरा हाथ फिर मलता है
जब हवा का झोंका चलता है.

सन सनन-सनन, सन सनन-सनन
वह वायु-गुल्म, वह ज्वार-यार  
जिस ओर चला, सब तोड़ चला  
जब त्यक्त उड़ा वो पर-पसार
नहीं रुकने की है चाह उसे
वो ग्रहिल, कुत्स्यहै कथा सार
शादाब सुमन का परिमर्दन
ज्यों पीन पूतना दुनिर्वार 
ना रुकता है ना संभलता है?  
जब हवा का झोंका चलता है.

वो अनुध्यानित, वो निर्विकार
मिलता जिसका ना आर-पार
वो पुष्ट, पृथुल, वो सदा पूर्त
वो पुण्य, पुनीत, अद्ध्वान, अमूर्त
वो दुखिया-दुखहर, लीलाधर
वो अम्बर, सागर, गिरि, गह्वर
वो शस्य, भगलिया या गलार
मिल जाता एक दिन एक बार
बस स्वप्न यही, मन पलता है
जब हवा का झोंका चलता है.

एक पिपासा है निशि-दिन
एक कथा अपूरित है जिस बिन
वो मन-मयूख की एक मलका महमंत
वो एक किरदार नहीं जिसका है अंत
वो दृगचल की है आस, आस और ज्योत
वो वल्लभ, वांचित, वेगवती, सुख-स्रोत
वो व्याधि ऐसी जिससे अपरिचित बैद
वो सिंजा जो बरसों से रक्षित, कर्ण-कैद
वो सिंजा आज भरे मन में, फिर झनन-झनन झनकता है
जब हवा का झोंका चलता है.

(आदरणीय नासवा जी के नाम)


(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १८ अगस्त २०१७)

Sunday, November 13, 2016

मुरैनावाले के लिए

तुम्हारे शब्द ध्वनिमात्र थे या
खून का रिसता दरिया
पता नहीं चल पाया कि तुम्हारे आत्मा की आवाज़
या तुम्हारे सिगरेट का का धुंआ
इसी व्योम की अप्रतिबंधित यात्रा को निकले थे
( बस  निकल कर विलीन होने को)
बहुत अँधेरे में जीते थे तुम
(और तुम्हारी फूलन देवी)
प्रेम शब्द जीवन में छलावा भर से ज्यादा है?
अपने ही घोंसले में कैद थे तुम
कितने छद्म की गांठों पर
बहुत महीनी से तलवार चलायी तुमने
और जीवन की सच्चाई भी अपना तलवार चलाती रही
(७० साल के कश्मकश के बाद का हासिल क्या अलग है)
नहीं होगी अलग, कभी नहीं नहीं होगी
मन, हृदय और लिंग
जिसके त्रिकोण में फंसी आत्मा, मनुष्य का प्रारब्ध है
मृत्यु वीभत्स है, या जीवन
इसका पता किसे है?
चाँद का मुंह टेढ़ा क्यों है
इसका पता किसे है ?

(ओंकारनाथ मिश्र, सागर, १३ नवम्बर २०१६)


Saturday, October 22, 2016

विचयन-प्रकाश

तुमने मुझे खून दिया
मैंने तुम्हारा खून लिया
तुमने मुझे खून से सींचा
और मैंने चाक़ू मुट्ठी में भींचा
शब्द नवजात की तरह नंगे हो गए
बस अफवाह पर दंगे हो गए
परकीया के हाथ पर बोला तोता
तुमने ही चूड़ियाँ बजाई, तुमने ही खेत जोता
झंडे पर शार्दूल, ह्रदय  में मार्जार
रसूलनबाई का हाल ज़ार-जार
धान के खेतों के बीच की चमकती दग्धकामा
बिदेसिया के प्रीत रामा! हो रामा!
लालारुख का अंगीठिया रुखसार
जैसे कोई आयुध, वैसी रतनार
बारिश के झोंकों सी तंज सहती एक नववधू
जैसे सहरा की बूँद हो एक शिशु  
पर क्या मिला कि मेरे गमले के पौधे सूख गए
और फूल काँटा बन मुझे बेध गया
मेरी मनस्कांत
यानि शान्ति! रहने नहीं देगी शांत
अपनी सीमाओं में रागान्वित मेरी सीता
कहती है इस दाल और तेल पर क्या नहीं बीता
एक छद्म-छवि पर योगित मेरा योगी
कहता है मैं ठहरा आदि-भोगी
उद्दांत उर्मियों के पार्श्व की विस्फारित सुर्खियाँ देखकर
मेरे “ह्रदय-डाल की सूखी टहनी से चिड़ियाँ ने कहा
प्रेतकुल सम्राट! दो हाथी, तीन घोड़े, पांच बाघ”
मेरी समन्वित चेतना, प्रवीर
मेरा चितवन, अल्प, अपरिसर
मेरे निरिच्छ मन की निर्मूल भ्रांतियां
मेरे लोकित स्वप्न
है तब तक जब तक वो चित्रकार है
जो कूची छोड़कर, करता सामूहिक नरसंहार है
और मेरे डाल की चिड़ियाँ कहती है
रात की ये चाँदनी
ये चाँदनी, ये चाँदनी


(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू २२ अक्टूबर २०१६)

Saturday, July 9, 2016

ये कैसा बंधन

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
घने घन की तरह उठकर
मुझमे ही प्रस्तारित हो
गिरती तेज झोंके की तरह
स्निघ्ध स्नेह सलिल बनकर
भिंगोती  बाहर अंदर

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
मदमाती सुवास बन आती हो
शिराओं में स्थान बनाकर 
हर स्पन्दन संग बहती जाती हो
मेरे ही मुस्कानों में मुस्काती हो
और सम्मुख होने से लजाती हो

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
बूँद-बूँद अनुक्षण रिसते
हिमशैल की तरह पिघलती हो
नदी धारा का  प्रवाह बनकर
जिधर मन हो चलती हो
उन्मुक्त लहर बन मचलती हो

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
और हम एक ही वृत्त के दो परिधि-बिंदु है
हमारे बीच की रेखा व्यास है
बस एक यही प्यास है
कि ये तिर्यक रेखाएं, ये त्रिज्या, ये कोण
क्यों नहीं होते गौण
व्यास के ये दो बिंदु नादान
मिल क्यों नहीं करते एक नए वृत्त का निर्माण

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १० जुलाई २०१६)

Thursday, July 7, 2016

मैं बंधा उस डोर से

मैं बंधा उस डोर से
जिस डोर में तुम बंध गए तो
क्या ये अंबर, क्या ये चिलमन
क्या ये उपवन, क्या ये निर्जन
क्या ये बादल, क्या ये शीतल
क्या गगन ये खाली-खाली
क्या गिरि के तुंग पर बैठे हुए से, पूछता है ये सवाली
तुम बताओ! तुम बताओ
क्यों भला इस डोर के दो छोर को मिलने ना दोगे
क्यों भला चटकी कली खिलने ना दोगे

मैं हूँ डूबा उस नशे में
जिस नशे में तुम मियाँ डूबे अगर तो
रात से हिल-मिल के सहसा
पूछ लोगे एक दिन तुम चाँद से
कि ओ रे दागी!
ओ रे दागी!
वो सितारा है कहाँ ब्रम्हाण्ड में
जिसने पलक भर, मिलके बस इतना कहा था
आऊँगा एक रोज शिद्दत से अगर चाहा मुझे
बता दागी! कहाँ है वो सितारा
बता दागी! कहाँ है वो किनारा

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, ७ जुलाई २०१६ )


Wednesday, May 25, 2016

कि बादल आये हैं

नाच उठा है मोर कि बादल आये हैं
यही बात सब ओर कि बादल आये है

सुरमई है हर एक किनारा अम्बर का 
बिजली ढन-ढन शोर कि बादल आये हैं

वो आँसूं भी सूख चुके हैं तप-तपकर  
ढलके थे जो कोर कि बादल आये हैं

बाँध लिया है झूला मेरे प्रियतम ने
चला मैं सारा छोड़ कि बादल आये हैं

पौधे, पंछी, मानव सबकी चाह यही
बरसो पूरे जोर कि बादल आये हैं

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, २५ मई २०१६)                                                                                                        

Friday, May 13, 2016

अन्वेषण

उन्हीं कणों का मैं एक वाहक
जिसमे रच बस गए हजारों
जिसमे बस फंस गए हजारों
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

मदिर पिपासा लिए हिमालय से
चल पहुंचा सिन्धु की छोर
छोर मिला ना, सलिल-बूँद! हाँ
चला हूँ अब अरावली की ओर

पर एक पिपासा, मदिर पिपासा
मेरी साकी, मेरा सांप
मेरा समतल, मेरा चाँप
रखूंगा कब तक उसको झांप
मेरी साकी, मेरा सांप
जिसकी गाथा दूर, दूर, से दूर कहीं पर एक गगन में
एक गगन क्या दूर, दूर, से दूर कही पर कई गगन में
उन्हीं कणों का एक वाहक  
मेरी साकी, मेरा सांप
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

धूप खिली थी, छाँव नहीं थी
मैंने छाँव नहीं माँगा था
नगर-डगर थे, डगर-शहर था
मैंने गाँव नहीं माँगा था
सोच रहा हूँ वो नादानी
जिसके कारण बिना स्वप्न के रात गयी
और खड़ी है शशिबाला ये
गुमसुम चुप-चुप कहती मन में
उन्हीं कणों के वाहक तुम भी
उन्हीं कणों की वाहक मैं भी
जिसे तलाशो अंतरिक्ष में
नींद वहीँ पर, चैन वहीँ
और वहीँ पर तेरा साकी, तेरा सांप
रात नहीं वो, बिना स्वप्न जो बीत गयी
कह देना उस साकी से तुम    

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १४ मई  २०१६ )