Saturday, July 9, 2016

ये कैसा बंधन

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
घने घन की तरह उठकर
मुझमे ही प्रस्तारित हो
गिरती तेज झोंके की तरह
स्निघ्ध स्नेह सलिल बनकर
भिंगोती  बाहर अंदर

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
मदमाती सुवास बन आती हो
शिराओं में स्थान बनाकर 
हर स्पन्दन संग बहती जाती हो
मेरे ही मुस्कानों में मुस्काती हो
और सम्मुख होने से लजाती हो

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
बूँद-बूँद अनुक्षण रिसते
हिमशैल की तरह पिघलती हो
नदी धारा का  प्रवाह बनकर
जिधर मन हो चलती हो
उन्मुक्त लहर बन मचलती हो

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
और हम एक ही वृत्त के दो परिधि-बिंदु है
हमारे बीच की रेखा व्यास है
बस एक यही प्यास है
कि ये तिर्यक रेखाएं, ये त्रिज्या, ये कोण
क्यों नहीं होते गौण
व्यास के ये दो बिंदु नादान
मिल क्यों नहीं करते एक नए वृत्त का निर्माण

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १० जुलाई २०१६)

Thursday, July 7, 2016

मैं बंधा उस डोर से

मैं बंधा उस डोर से
जिस डोर में तुम बंध गए तो
क्या ये अंबर, क्या ये चिलमन
क्या ये उपवन, क्या ये निर्जन
क्या ये बादल, क्या ये शीतल
क्या गगन ये खाली-खाली
क्या गिरि के तुंग पर बैठे हुए से, पूछता है ये सवाली
तुम बताओ! तुम बताओ
क्यों भला इस डोर के दो छोर को मिलने ना दोगे
क्यों भला चटकी कली खिलने ना दोगे

मैं हूँ डूबा उस नशे में
जिस नशे में तुम मियाँ डूबे अगर तो
रात से हिल-मिल के सहसा
पूछ लोगे एक दिन तुम चाँद से
कि ओ रे दागी!
ओ रे दागी!
वो सितारा है कहाँ ब्रम्हाण्ड में
जिसने पलक भर, मिलके बस इतना कहा था
आऊँगा एक रोज शिद्दत से अगर चाहा मुझे
बता दागी! कहाँ है वो सितारा
बता दागी! कहाँ है वो किनारा

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, ७ जुलाई २०१६ )


Wednesday, May 25, 2016

कि बादल आये हैं

नाच उठा है मोर कि बादल आये हैं
यही बात सब ओर कि बादल आये है

सुरमई है हर एक किनारा अम्बर का 
बिजली ढन-ढन शोर कि बादल आये हैं

वो आँसूं भी सूख चुके हैं तप-तपकर  
ढलके थे जो कोर कि बादल आये हैं

बाँध लिया है झूला मेरे प्रियतम ने
चला मैं सारा छोड़ कि बादल आये हैं

पौधे, पंछी, मानव सबकी चाह यही
बरसो पूरे जोर कि बादल आये हैं

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, २५ मई २०१६)                                                                                                        

Friday, May 13, 2016

अन्वेषण

उन्हीं कणों का मैं एक वाहक
जिसमे रच बस गए हजारों
जिसमे बस फंस गए हजारों
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

मदिर पिपासा लिए हिमालय से
चल पहुंचा सिन्धु की छोर
छोर मिला ना, सलिल-बूँद! हाँ
चला हूँ अब अरावली की ओर

पर एक पिपासा, मदिर पिपासा
मेरी साकी, मेरा सांप
मेरा समतल, मेरा चाँप
रखूंगा कब तक उसको झांप
मेरी साकी, मेरा सांप
जिसकी गाथा दूर, दूर, से दूर कहीं पर एक गगन में
एक गगन क्या दूर, दूर, से दूर कही पर कई गगन में
उन्हीं कणों का एक वाहक  
मेरी साकी, मेरा सांप
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

धूप खिली थी, छाँव नहीं थी
मैंने छाँव नहीं माँगा था
नगर-डगर थे, डगर-शहर था
मैंने गाँव नहीं माँगा था
सोच रहा हूँ वो नादानी
जिसके कारण बिना स्वप्न के रात गयी
और खड़ी है शशिबाला ये
गुमसुम चुप-चुप कहती मन में
उन्हीं कणों के वाहक तुम भी
उन्हीं कणों की वाहक मैं भी
जिसे तलाशो अंतरिक्ष में
नींद वहीँ पर, चैन वहीँ
और वहीँ पर तेरा साकी, तेरा सांप
रात नहीं वो, बिना स्वप्न जो बीत गयी
कह देना उस साकी से तुम    

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १४ मई  २०१६ )


Tuesday, February 9, 2016

प्रश्न

बाइबल से निकले हुए भाव थे शायद-
“गॉड कैननॉट गिव यू मोर दैन यू कैन टेक”
कर्ण-विवरों में आशा की ध्वनियाँ
कोठे पर नाचनेवाली की पायल
अक्सर, अच्छी लगती है- बहुत अच्छी
और साथ ही यह भी-
“व्हाटऐवर हैप्पेंस, हैप्पेंस फॉर द बेस्ट”
जुमले नहीं है ये
सिद्धहस्तों के सूत्र हैं-जीवन सूत्र

लेकिन मेरे ही पड़ोस में रहती है-
श्रीमती(?) महलखा चंदा
बर्तन धोती है, बच्चों के पेट भरती है
कितने नालायक बच्चे है
जबसे स्कूल छूटा .........
बस आवारागर्दी
चाहे गर्मी हो या सर्दी
दो बरस से जब
इनके पिता दंगे की गाल आये
और महलखा उतर आई चौका-बर्तन करने 

सिद्धहस्तों के सूत्र हैं-जीवन सूत्र
“व्हाटऐवर हैप्पेंस, हैप्पेंस फॉर द बेस्ट”
पूछ लूँ ?

(ओंकारनाथ मिश्र, नॉएडा, ९ फ़रवरी २०१६ )


Saturday, January 16, 2016

एक दिन

कई महीनों  से 'ग़ज़ल' लिख पाना संभव नहीं हो पाया. ग़ज़ल की पूरी समझ अभी भी नहीं है मुझे. रदीफ़ और काफियाबंदी जरूर कर लेता हूँ अब. लेकिन बहर के लिए शायद किसी उस्ताद का शागिर्द बनना होगा.  नज़ाकत और नफ़ासत के लिए खासकर.   अभी एक नयी 'ग़ज़ल' लिखी है.  नया नाम और तखल्लुस के साथ. आपकी नज़र.  मौजू , तखल्लुस के हिसाब से हैं.


एक दिन

बज ही जायेगी तुम्हारी साज़-ए-हस्ती एक दिन
फिर बशर है क्यूँ तिरी मतलब-परस्ती एक दिन

तुम मुसाफिर इस दहर के, दो दिनों की बात है  
और  तब   तो   डूबनी है तेरी कश्ती एक दिन

शादमां कुछ, ग़मज़दा कुछ, और कुछ हैरान से
हाल यक सा है  यहाँ हर एक बस्ती एक दिन

क्या करोगे तुम मियाँ लेकर ये गौहर साथ में
होवेगी जब यां तिरी ‘कज्ज़ाक-गश्ती’ एक दिन

‘ख़ाक’  है जो साथ तेरे बस यही एक वक़्त है
कौन जाने हो तुम्हारी फिर से मस्ती एक दिन


-ओंकारनाथ मिश्र ‘खाक़’

(ग्वालियर, १६ जनवरी २०१६)

Saturday, December 26, 2015

प्राण मेरे तुम कहाँ हो

 उठ चुकी हैं सर्द आहें
कोसती है रिक्त बाहें
उर की वीणा झनझना कर पूछती है आज मुझसे
गान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?

दिन ये बीते जा रहे हैं, रात लम्बी हो रही है
पा रहा है क्या ये जीवन, क्या ये दुनिया खो रही है  
क्या पता था दो दिनों का साथ देकर मान मेरे ..........?
मान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?

क्षितिज में है शून्यता, छाया अँधेरा
जम चुका है तारिकाओं का बसेरा   
कितने निर्मम तुम भी लेकिन चान मेरे
चान मेरे तुम कहाँ हो
प्राण मेरे तुम कहाँ हो ?


(ओंकारनाथ मिश्र, ग्वालियर, २७ दिसम्बर २०१५ )

Thursday, November 26, 2015

छोटी सी बात


अपने ही ह्रदय की
अनिश्चित सीमाओं में
और अनिश्चितताओं के बीच
बंधी है अब भी वही तस्वीर
वही गीत (‘होरी’ गीत)
वही संगीत, कल्पना और उसका रोमांच
और अपनी जमीन का वह विशाल चुम्बक
मेरे खेत, धान की बालियाँ और मेरी माँ
छोटा सा दिन और छोटा सा जीवन
अपनी अँजुरी में क्या-क्या लूँ
अपनी बातों में क्या-क्या कहूं
सुबह होती है, शाम होता है
जीवन का बस इतना काम होता है


(ओंकारनाथ मिश्र, बनगाँव, २७ नवम्बर २०१५)

Thursday, October 8, 2015

अतिवेल

ना कोई ‘प्रील्यूड’, ना ‘इंटरल्यूड’
बस शब्दों का संगीत है
कुछ ध्वनियाँ ह्रदय से, नभ से
शेष इसी दुनिया के ध्वनियों का समुच्चार है
आपका बहुत आभार है

बीड़ियाँ सुलगती रही और ह्रदय
अविरत, निर्लिप्त
प्रेम, परिवार और समाज
कुछ स्याह अँधेरा, कुछ धुँआ
अंध-विवर से दूर दीखता एक वातायन
जीवन, संघर्ष या सामूहिक पराजय
यह किसने तय किया कि सफलता
या चाँदनी की निमर्लता
सबका ध्येय नहीं, प्रमेय नहीं

तो क्या मृत्यु का वीभत्स रूप
रोक सका है
उस ध्वनि को जो छनती है अंतःकरण में
क्या उसकी सीमाएं  
तय कर सकता है काल
चम्बल और धौलपुर के बीच के ढूहों में
रुक सकती है वह ध्वनि?
वह मेरी और आपकी आवाज़ है
जीवन से उपजी आवाज है
वह दूर जा सकती नहीं
जायेगी नहीं

(उसी मुरैनावाले के प्रति जिसकी पुकारती हुई पुकार क्या-क्या पुकारती है)

(ओंकारनाथ मिश्र, दिल्ली, ३ अक्टूबर २०१५)


Wednesday, September 30, 2015

ले लिया मौसम ने करवट

पिछले कुछ दिनों से सतपुरा के जंगलों में घूम रहा हूँ.  प्रकृति के मध्य से सूर्य, चन्द्रमा और मौसम की मादकता पा रहा हूँ. कभी कभी उनकी तस्वीरें भी ले रहा हूँ. आज की कविता उन्हीं तस्वीरों की बानगी है.


ले लिया मौसम ने करवट
व्योम से बादल गए हट
कनक-नभ से विहग बोले
‘तल्प-प्रेमी'  उठो झटपट
ले लिया मौसम ने करवट

खिली कोंढ़ी, जगे माली
कुसुम-पूरित हुई डाली
गई पीछे रात काली
वेणी भरने चली आली
श्लेष-वांछित, तप्त-रदपट
ले लिया मौसम ने करवट

रहे कब तक धरती सोती
किसानों ने  खेत जोती
क्पोत-क्पोती कब से बैठे
फिर भी क्यों न बात होती
यही पृच्छा मन में उत्कट
ले लिया मौसम ने करवट

जग उठे हैं श्वान सारे
दग्ध, प्यासे, मिलन-प्यारे
आह! उनकी वेदना है
क्यों कोई फिर ताने मारे  
वो उठायें हूक निर्भट!
ले लिया मौसम ने करवट

नीर झहरे, गीत गाये
हरित तृण-तृण मुस्कुराएँ
हो सुहागिन सांझ बेला
भरे मन में लहर लाये
प्राणवन्तिनी! खोल दो लट
ले लिया मौसम ने करवट

तमनगर प्रक्षीण है अब
निष्तुषित कलु-भाव है सब
भर चुका है सकल अंबर
ज्वाला के ही विविध छब-ढब
ह्रदय-उर्मि छुए तट-तट
ले लिया मौसम ने करवट

हर तरफ ज्यों हास का, ज्यों लास क्षण
मधु मन में, मधु तन में, मधु कण-कण
वाह! कितने  ठसक से ये बहक निकली
हरने गावों-नगरों से ये सारे मन-व्रण
तृषावंतों! पियो गटगट आज शत-घट
ले लिया मौसम ने करवट

(निहार रंजन, ग्वालियर, २९ सितम्बर  २०१५)


और अब इस कविता के 'नायकों'  की तस्वीरें-