शोणित व नख व मांस, वसा
अंगुल शिखरों तक कसा कसा
आड़ी तिरछी रेखाओं में
कहते, होता है भाग्य बसा
हाथों की दुनिया इतनी सी
वो उसका हो या मेरा हो
फिर क्यों विभेद इन हाथों
में
गर चुम्बन लक्ष्य ही तेरा
हो
हाथें तब भी होंगी ये ही
रुधिर में धार यही होगा
रेखाविहीन इन हाथों में
जब श्रम-पतवार नहीं होगा
ओ! हथचुम्बन के चिर प्रेमी
उस दिन ऐसे ही चूमोगे ?
जिस दिन जड़वत हो जाऊँगा
क्या देख मुझे तुम झूमोगे?
यूँ बार बार चूमोगे तो
ग्रंथि तेरी खुल जायेगी
जिस सच पर पर्दा डाल रहे
खुद अपनी बात बताएगी
उभरेंगी फिर से रेखाएं
जिनका हाथों पर नाम नहीं
कौशल किलोल कर जाएगा
आओ दे दो अब दाम सही
भोलेपन से अब कितना छल
हे मधुराधर के चिर-चोषक
सौ-सौ मशाल ले आये हैं
व्याकुल सारे पावक-पोषक
ठहरो! ठहरो! ये जान गए
क्यों मादकता की मची धूम
ये खूब जानते हैं क्यों तुम
इन हाथों को हो रहे चूम
स्वार्थें ही होती है तह
में
संबंधों की इस संसृति में
गांठें नाभि की जब खुलती
कह देती, क्या उनकी मति में
निस्सीम प्रसृति है इसकी
नहीं शेष कोई पृथ्वी पर ठौर
वो बस माँ है और मिटटी है
होती जिसकी है बात और
(ओंकारनाथ मिश्र, समिट स्ट्रीट, ९ जून २०१४)