Thursday, September 26, 2013

दीया और घड़ा

अपनी लघुता की कुंठा से
अरे ओ दीपक! बढ़ा मत
निरर्थक व्यथा का भार

उसी मिटटी, हाथ से, तुम दोनों निर्माण हुआ
तपकर जब बाहर निकले, आकारों से पहचान हुआ
उसके भाग्य है शीतलता और तेरी नियति में तपना
लघु हो पर हीन नहीं, तुम क्या जानो अपनी रचना
वो तो ग्रीष्म भर प्रिय है, पर उसका सामर्थ्य नहीं
लौ से लौ जगा तम चीर जाये, जहाँ जाये वहीँ  

विस्मृत कर तपन
अरे ओ दीपक! कभी सोचो
क्यों रचता ऐसा कुम्भकार

आकारों के वश में नहीं, जो कहे, किसकी क्या क्षमता है  
रचनेवाला ही जानता है, वो किसे, किसलिए रचता है
किसे मिलेगा ताप सतत, और किसे मिले सद शीतलता
किसका कैसा रूप, कर्म, तय वही सभी का करता है
पर देखो! तिमिर घिर मनुज, बस उसकी आस में रहता है
जो नहीं वृहत, है लघु,  तम लड़ता, रहता जलता है          


(निहार रंजन, सेंट्रल, २६ सितम्बर २०१३) 

दो रूठी कविताओं में एक "लैलोनिहार ....." इस महीने के शुरुआत में लिखी थी और आज ये कविता आखिरकार एक आकार में पहुंची.  

Sunday, September 22, 2013

काश!

गुड़गुड़ाते हुक्कों के बीच
उठता धुएं का धुंध
उसे चीरती चिता की चिताग्नि
चेहरों पर उभरे प्रश्वाचक चिन्ह
कुछ पाषाण हृदयी जीवित अ-मानव
और ढेर सारे प्रश्न
जीवन के, जीवन-निर्माण के
समाज के, समाज-उत्थान के
संग-सारी के, तालिबान के.

अगर यही परिणति तो
नौ महीने का गर्भधारण क्यों
असह्य प्रसव वेदना क्यों
व्यर्थ स्तनपान क्यों
नक्तंदिन स्नेह स्नान क्यों
संतति की दो आँखों में
आशा का संसार क्यों
इस दानवी कृत्य के लिए
समय व्यर्थ करने की दरकार क्यों

उदहारण तो पुरखों पितामहों ने
दिखाए थे फांसी चढ़ाकर
मगर तुम्हे नहीं हो सका ज्ञात
जीवन से ऊपर नहीं होती जात
उदाहरण तो तुम बने  हो
इंसान से दानव में परिवर्तित होकर
अपने हाथों से अपने ‘प्राणों’ को मृत कर

वैध और अवैध की परिभाषाएं
बदलती है सीमायें, समय
विषय वासना केंद्र नहीं प्रेम का  
काश! समझ पाते तुम निर्दय
इस झूठी मूंछ से बहुत बड़े
होते हैं अपने तनयी-तनय
काश! माता और पिता जैसे शब्द
चीर दें तुम्हारे उस पाषाण ह्रदय को
और तुम्हारी आत्मा अटकी रहे
उत्सादी उद्विग्नता में
माता और पिता जैसे शब्द
पुनः सुनने के लिए     


(निहार रंजन, सेंट्रल, २२ सितम्बर २०१३)

Wednesday, September 18, 2013

आत्मरक्षा

गतिमान पथिक, सतत विकस्वर  
सुख-निरिच्छ, केन्द्रित लक्ष्य पर
किन्तु जगत के मोह बंधन से
पग-पग मिलते प्रलोभन से
मिथ्या के मोहक छद्म आवरण से
तन्द्राल सुमति के अलभ्य जागरण से
विवश है विकारों के सहज वरण से
मर्त्यलोकी पथों के सुलभ कंटकों पर
बचता हुआ, बिधता हुआ
चला जा रहा है, चला जा रहा है!   

त्वरण तेज होता हुआ जा रहा है
नहीं शेष क्षण जो विचिन्तित हो जीवन
करे मन मनन तो नयन हो विचक्षण
प्रलोभन से यंत्रण तो निश्चित क्षरण
हो अदना मनुज कोई इस धरा का
या अर्जित किया है जिसने तपोबल
श्रृंखलित मन भी हो जाता विश्रृंखल
लगा दौड़, कुपथ पर देता है चल
लोभ से लुभाते, लार गिराते
गिरा जा रहा है, गिरा जा रहा है!

कोई तुच्छ भेटों से ही प्रफुल्लित
कोई शरीर सुख को डोल जाता
कोई स्वर्ग लोलुप वृथा कर समय  
स्वप्नों में खोकर जीवन बिताता
जीवन पथ पर चलते पथिक को
जरूरी बहुत है ये जान जाना
जो इच्छित हो जीवन अवसाद के बिन
दंत-पिंजरे में जिह्वा का रखना ठिकाना
रहा है जो रक्षित इन्हीं कंटकों से
बढ़ा जा रहा है, बढ़ा जा रहा है ! 


(निहार रंजन, सेंट्रल, १८ सितम्बर २०१३)    

Sunday, September 15, 2013

पुनः जंगलों में

पचास साल गुजार कर
सारा ‘संसार’ पाकर  
उम्र के इस पड़ाव पर
वो भाग जाना चाहता है
पूरब की ओर
क्योंकि पूरब में है ‘ह्वंग ह’
और ‘ह्वंग ह’  ‘माँ’ है
इसलिए वो जाना चाहता है
इसी माँ के पास क्योंकि
माँ का प्रेम विपुल है
निःस्वार्थ भी

उसे देह का प्यार
बहुत मिला है लेकिन
उसकी आत्मा
तलाश करती है सच्चे प्यार को
सो वो निकल पड़ा है
अपने टूटे “डी” स्ट्रिंग वाली 
इलेक्ट्रिक गिटार के साथ
‘फ्रेडी किंग’ और ‘एरिक क्लैप्टन’ की तरह
“हैव यू एवर लव्ड अ वुमन” गाते हुए

ताकि शोक की नदी, पीली नदी
उसके ज़र्द चेहरे को देखे  
उसकी संतप्त आवाज़ सुने
और अपनी धारा से
बहा ले जाए उसे
तीर के दूसरी तरफ
जहाँ उसकी प्रियतम बैठी  है   

यही फितरत है इंसान की
जंगलों से भागता है शहर की ओर
महल बनाता है
सारे साजो-सामान बिछाता है
कमरे को रोशन करता है लेकिन
अपने अंतस के अन्धकार को
मिटा नहीं पाता है
क्योंकि महलों के कमरे 
रौशन हो के भी 
घने अन्धकार में डूबे है
इसलिए वो जाना चाहता है  
फिर से जंगलों में, नदी के तीर पर  
ताकि मुक्त कंठ से वो गा सके
“हैव यू एवर लव्ड अ वुमन”

(निहार रंजन, सेंट्रल, १५ सितम्बर २०१५)


‘ह्वंग ह’- चीन की नदी (Yellow River) 

Thursday, September 12, 2013

लैलोनिहार चल तिमिर छाड़

दिवस हो या हो निशा,
दो रूप हैं, पर है समय
दिवस-प्रीति निशा-भीति,
क्यों निशा से इतना भय?
हो नहीं पाओगे पुलकित
देखकर टिम-टिम वो तारे
बहती नदिया पर छिटकते
चन्द्रमा  को पा किनारे
क्यों उजालों की ही वांछा
रुचती मन के निलय में
क्यों निशा में दंश इतना
चोट करती मन-अभय में
जो निशा अस्तित्व ना हो
एकरस हो जाए जीवन
उठती क्या आनंद लहरी
प्राप्त कर प्रातः समीरण
कर निशा से द्वेष तुम
यूँ ना करो अपमान उसका
भेंट हैं यह, भव-बंधन की  
आओ करें सम्मान उसका

हाँ! दिवस की रोचि रुचिकर
पर दिवस में है तपन
वो तपन भी भीतिकर है
तपन-चाहना है किस मन?
ताप-भीरु हर मनुज है
चाहे ताप निखारे कुंदन
सर्वकालिक ही रहा है
मन अभिलाषित सुगम अयन
फिर दिवस श्रिति चाहता क्यों
पूछता हूँ प्रश्न मन से
भव के इस भ्रमजाल में जब
भीति-मूलें हैं सघन से
क्या दिवस से द्युतित जग में
लोप है दारित ह्रदय की
क्या दिवस में भुज-बल इतना  
निर्गलित करे पथ सदय की
देखो! बली सुतनु मेघ को  
है किया उजागर बार-बार
विवश दिवस अवक्रांत कैसा   
प्रसृत मेघ जब करें प्रहार

उस तिमिर से ही निशा है
मेघ पर जो है बिहँसता
ये तिमिर है जिसको केवल  
बस समय ही जीत सकता
तिमिर भी एक व्याध है
शत्रुता जिसकी मन-खग से 
अर्गलित कर द्वार मन के
वर्धित करे अपरक्ति जग से
दृष्टि का है खेल सारा
दिवस निशा दोनों ही निर्मल
मन के चक्षु तिमिरहीन तो
सब कुछ दिखता धवल-धवल
निर्दोष है सारी निशा
सब तिमिर की करनी है
मन जो दे प्रश्रय उसको
सकल भीति की जननी है
कह तिमिर से, जब बसाये
मन में वो अपना बसेरा
"तुम जो चाहो, रात लाओ
देखता हूँ मैं सवेरा!"

(निहार रंजन, सेंट्रल, ११ सितम्बर २०१३)


लैलोनिहार- रात और दिन  
वांछा = इच्छा 
निलय = घर, कक्ष 
प्रातः समीरण = सुबह की हवा 
भव-बंधन = सांसारिक बंधन 
रोचि = प्रभा 
भीतिकर = डरावना 
सुगम अयन = आसान मार्ग 
श्रिति = सहारा 
द्युतित = प्रकाशित 
दारित ह्रदय = दुखी ह्रदय 
निर्गलित = बाधाहीन 
तिमिर = अँधेरा 
व्याध = बहेलिया 
अर्गलित = बंद 
अपरक्ति = द्वेष 

Thursday, September 5, 2013

लेकिन कविता रूठी है


देख यह विस्तीर्णता यूँ
व्योम में फिरता हुआ मन
नील नभ की नीलिमा से
तीर पर तिरता हुआ मन
लेकिन कविता रूठी है

दिवस किरण-वांछा से तिरपित
चले विहग उत्फुल्ल हो-हो कर  
कुछ पेड़ों की फुनगी चढ़कर  
उठा रहे नंदद स्वर अंतर
लेकिन कविता रूठी है

उड़-उड़ कर आती है हवाएं
तन सहलाये, मन सहलाये
मंद-मंद, कानों पर थपकी
देती जाये, मन हुलसाये
लेकिन कविता रूठी है

मौन हैं पर्वत मगर
विगलित हिमों से कह रहे
लब्ध है उनको मिलन
उन्मुक्त हो जो बह रहे   
लेकिन कविता रूठी है

अगत्ती बादल अल्हड़ाये  
कर प्रत्यूह प्रधर्षित पथ में
कहता रहता है रह-रह कर
आओ उड़ लो कल्पित रथ में
लेकिन कविता रूठी है

चुप सी विभावरी रात है
बहती मद्धिम वात है
तारिकाएं है गगन में
भावों की बरसात है
लेकिन कविता रूठी है

(निहार रंजन, सेंट्रल, ५ सितम्बर २०१३)

अगत्ती - खुराफाती, जिसकी चाल  या गति का निर्णय कर पाना मुश्किल हो 

Saturday, August 31, 2013

ताश के पत्तों का आशियाँ

ये दर-ओ-दीवार, ये फानूस
लटकती पेंटिंग पर
नीम-शब का माह
‘लिविंग रूम’ में सजी 
आतिश-फिशां तस्वीरें
दफ्न किये गुज़रे वक़्त की
वो यादें जिसमे
नूर का एक दरिया था
आज नूर गायब है!
हवा की हलकी आहट से भी
ये दीवारें डोल रही है
ये पत्थर की दीवार है
या ताश के पत्तों की?

रंगीन माहौल में पहली
खुशनुमा सी वो मुलाक़ात
जिसकी खुशनुमाई थाम रखी थी
‘इलेक्ट्रिक लेमोनेड’ की तरंगों ने
जहाँ ‘पूल टेबल’ पर
हर ‘शॉट’ के साथ
उसके झुकते ही झुक जाती थी
शातिर सय्याद चश्म
हुई थी इब्दिता-ए-मुहब्बत
उसी रोज़, उसी खोखली
रंगीन रौशनी के आब-ओ-ताब में
बुनियाद रखी गयी थी
ताश के पत्तों के आशियाने की    

चन्द लम्हात गुज़रे भी नहीं
एक ‘मुकम्मल’ आशियाँ खड़ा था
मखमली गद्दों के सोफे
साठ इंच की “वाल माउंटेड” स्क्रीन
‘पार्टी पैक एपीटाईज़र्स’  के साथ
झागदार ‘सैम एडम्स’ का ‘सूटकेस’
‘डेट्रॉइट टाइगर्स’ और ‘न्यूयॉर्क यैंकीज’ का मैच
दोस्तों की जमघट, उनका खुलूस
तखइल में वो नकूश हो
तो भी यादगार हो
एक मुक्कमल हयात की तस्वीर
यही जानी थी तुमने
ज़िन्दगी की तमाम ख्वाहिशें
इसी ‘मनी और हनी’ के रगबत तक
सिमट के रह गयी थी
ताश के घरों की पुरनूर ख्वाहिशें!

‘मनी और हनी’ के कॉकटेल की
तासीर ही तो थी आखिर
कि कल्ब से कब्ल बाँधी थी तुमने
अपनी डोर उसकी इजारबंद से
नावाकिफ इस बात से   
कि इजारबंद में असीर होकर
आशियाँ बसाने वालों के घर
तब्दील हो जाते हैं
ताश के पत्तों के घरों में
जिसके बनने और ढहने में
फासला होता है बस एक लम्हे का

लेकिन ग़मख्वारी किस सबब?
तल्खियां पिन्हाँ कहाँ इस कल्ब में
घर गिरेंगे, फिर घर उठेंगे
बवक्ते मय-परस्ती
फिर से सजेगी ‘पूल टेबल’
फिर से झुकेंगी सय्याद निगाहें
फिर से उठेंगी वहीँ पर
‘इलेक्ट्रिक लेमोनेड’ की तरंगे
बन जाएगा दुबारा
ताश के पत्तों का आशियाँ
‘वन्स’ मिलने वाली ‘लाइफ’ की
सॉलिटरी, सिंगल चॉइस

(निहार रंजन, सेंट्रल, ३० अगस्त २०१३)