Saturday, January 26, 2013

क़द्र रौशनी की

क़द्र रौशनी की 

जिन आँखों ने देखे थे सपने चाँद सितारों के
वो जल-जल कर आज अग्नि की धार बने हैं

सपने हों या तारें हों, अक्सर टूटा ही करते हैं
हो क्यों विस्मित जो टूट आज वो अंगार बने हैं

अंगारों का काम है जलना, जला देना, पर आशाएं    
जो दीप जलें उनके तो रौशन मन संसार बने हैं

संसार का नियम यही कुछ निश्चित नहीं जग में
किस जीवन की बगिया में अब तक बहार बने हैं  

वो बहार कैसी बहार, बहती जिसमे आँधी गिरते ओले
उस नग्न बाग़ का है क्या यश, जो बस खार बने हैं

ये खार ही है सच जीवन का, बंधुवर मान लो तुम
जो चला हँसते इसपर जीवन में, उसकी ही रफ़्तार बने है

रफ़्तार में रहो रत लेकिन, तुम यह मत भूलो मन
क़द्र रौशनी की हो सबको, इसीलिए अन्धकार बने हैं 

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२६-२०१३)

Sunday, January 20, 2013

पंथ निहारे रखना

पंथ निहारे रखना

छोड़ दो ताने बाने
भूल के राग पुराने
प्रेम सुधा की सरिता
आ जाओ बरसाने

प्रियतम दूर कहाँ हो
किस वन, प्रांतर में  
सौ प्रश्न उमड़ रहे हैं
उद्वेलित मेरे अंतर में

जीवन एक नदी है
जिसमे भँवर हैं आते
जो खुद में समाकर
दूर हमें कर जाते

ये सच है जीवन का  
लघु मिलन दीर्घ विहर है
फिर भी है मन आह्लादित
जब तक गूँजे तेरे स्वर हैं

देखा था जो सपना
वो सपना जीवित है
प्रीत के शीकर पीकर
प्रेम से मन प्लावित है
___________________
....प्रिय पंथ बुहारे रखना
हो देर मगर आऊँगा
वादा जो किया था मैंने  
वो मैं जरूर निभाऊंगा.

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३)


काली बातें


काली बातें

रात है निस्तब्ध
और मैं अकेला चला जा रहा हूँ
ना कोई मंजिल है और न वजह
बस चलना है इसलिए चलता हूँ

रात गहरी है, हैं घने घन
और उनका डरावना स्तनन
लेकिन  मुझे चलना है...
भला मिटटी से दूर कहाँ तक, कब तक
एक जननी है, तेरा भी, मेरा भी
कब तक इससे दूर भागोगे
इसलिए चलता ही जाता हूँ
क्योंकि आज रात बहुत कारी है
आज रात बहुत प्यारी है

कारा मम अति प्यारा ..
कारे मेघ हो या तेरी आँखें
डरता नहीं देख मौत का कारा-स्वप्न
पर डर जाता हूँ उस काले लकीर  से
जो तुम्हारे नैन छोड़ जाते है, कमबख्त!!
सारे काजल ले जाते है वो स्याह अश्रु  
पर तुम कहती हो कि अश्रु निकले तो अच्छा है
खुल के कह दो ना आज.. मेरा विप्रलंभ है

मुझे पता है तुम्हारा गला रुंध जाएगा
क्योंकि आजतक तुमने दोष ही लिया
तुम न कह पाओगी मुझसे दिल का हाल
तुम ना कह पाओगी मुझसे, “मैं निरा-व्याल”
और वही चुप्पी जोर से बोलती है मेरे मन
साल दर साल, दर-ब-दर, दिवस-निशि-शर्वर
और मैं चलता जाता हूँ “स्फीत” उर, स्पन्न मान लिए
स्याह रातों से तेरी आँखों का काजल माँगने
वात्या से अविचलित, मेघ के हुंकार से निडर
उस चुप्पी भरी आखिरी मुलाकात के शब्द तलाशता
जिसमे मैंने देखे थे अश्रुपूर्ण विस्फारित तेरे नयन.
कारे नयन!! जिसका  काजल इसी मिटटी ने चुरा रखा है .
चलो मिटटी से मांग लूँगा ........!!

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-२०-२०१३ )


Saturday, January 12, 2013

ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी

ज्योति थी तुम जीते जी, ज्योत हो तुम मर कर भी


तेरी चीख नहीं सुनी हमने
पर घोर शोर है मन में
धधक उठी आज आग
हमारे हिस्से के हर कण में  

हो तुम मौजूद नहीं पर
तेरी ख़ामोशी कहती है सबसे
मचेगा प्रलय भारतभूमि पर
अगर जगो ना तुम अबसे    

आ गया वक़्त है जब
हम खुद से करें तदबीर  
और बदलें सबसे पहले
अपने समाज की तस्वीर

खोल दे बेड़ियाँ बेटियों के पैर से,
दें हम उसके हाथ कलम
लिखने दे उसे खुद की तकदीर,
मिटाने दे उसे खुद के अलम   

हम ना दें अब और उसके
गमज़ा-ओ-हुस्न की मिसाल
तंज़ न दें उसको बदलने को,
हम ही बदलें अपनी चाल

हमने माना की सारे बुजुर्ग
होंगे नहीं हमारे हमकदम  
नदामत है हमारे ज़माने की,
करें अज़्म लड़ेंगे खुद हम

वो जो हर अपना घर में
मांगेगा दहेज़ गहने जेवर
अहद लो आज खुद उठके
तुम दिखाओगे चंगेजी-तेवर  

ये शपथ लो ब्याह ना आये
कभी बेटी की शिक्षा की राह
उसको रुतबा-ओहदा पाने दो
जिसकी उसको मन में है चाह

दामिनी!

तुम जा चुकी हो उस मिटटी में
जहां हम भी एक रोज़ आयेंगे
काश! जो तुम न देख सकी
उस समाज की दास्ताँ सुनायेंगे

ये मत समझना तुम
व्यर्थ हुए तुम्हारे प्राण
तन्द्रासक्त भारतभूमि पर
जागेंगे जन एक नवविहान

खोल दी सबकी आँखें,
झकझोड़  दिया अन्तर भी
ज्योति थी तुम जीते जी,
ज्योत हो तुम मर कर भी

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१२-२०१२)

Friday, January 4, 2013

जल! तेरी यही नियति है मन


जल! तेरी यही नियति है मन

जीवन पथ कुछ ऐसा ही है
चुभते ही रहेंगे नित्य शूल
हो सत्मार्गी पथिक तो भी
उठ ही जाते हैं स्वर-प्रतिकूल
छोड़ो  उन औरो की बातें
भर्त्सना करेंगे तेरे ही “स्वजन”
जल! तेरी यही नियति है मन

एक मृगतृष्णा है स्वर्णिम-कल
होंगे यही रवि-शशि-वायु-अनल
होंगे वही सब इस मही पर
शार्दूल, हंस,  हिरणी चंचल
हम तुम न रहेंगे ये सच है
कई होंगे जरूर यहाँ रावण  
जल! तेरी यही नियति है मन

हो श्वेत, श्याम, या भूरा
है पशु-प्रवृत्ति सबमे लक्षित
ब्रम्हांड नियम है भक्षण का 
तारों को तारे करते भक्षित
है क्लेश बहुत इस दुनिया में 
हासिल होगा बस सूनापन
जल! तेरी यही नियति है मन

त्रिज्या छोटी है प्रेम की
उसकी सीमा बस अपने तक
ऐसे में शान्ति की अभिलाषा
सीमित ही रहेगी सपने तक
मेरा हो सुधा, तेरा हो गरल
फिर किसे दिखे अश्रुमय आनन
जल! तेरी यही नियति है मन

है प्रेम सत्य, है प्रेम सतत
पर प्रेम खटकता सबके नयन
आलोकित ना हो प्रेम-पंथ
करते रहते उद्यम दुर्जन
आनंद-जलधि है प्रेमी मन
यह  नहीं जानता  “दुर्योधन”
जल! तेरी यही नियति है मन

(निहार रंजन, सेंट्रल, १-१-२०१३)

Sunday, December 30, 2012

बगावत अपने घर


बगावत

अमानत भेंट हुई है आज उस पाशविकता के
जो आई है समाज के कण-कण में पसरे दानवता से

और जब से वह अर्ध्स्फुट पुष्प गई है  लोक-पर
ऐसा लगता है मेरा ही कोई हिस्सा गया है मर

एक हाहाकार मचा है अपने अंतर में
कोई तेज नहीं है अब अपने स्वर में

सोचता हूँ कौन थामेगा उसके स्वजनों की बाँह 
क्या हम दे ही सकते उन्हें सिवाय कुछ सर्द आह

कायर हम क्योंकि जब हमारे अपने ही सीटी बजाते है
कितनों को हम जोर से तमाचा मार पाते हैं.

इसलिए बार-बार “राम” नाम के रावण अवतरित हो पाते हैं  
और हम बस इंडिया गेट और गेटवे ऑफ़ इंडिया पर मोमबत्ती जलाते हैं

कितने हम है जो अपनी शादी में दहेज़ को ठुकराते हैं
कितने है जो अपने घर में कुरीतियों से टकराते है
                                                              
कितने है हम  जो पूछ पाते हैं अपने आप  से
मेरी बहन भी क्यों न पढ़ पायी, ये पूछते है बाप से

क्यों न होता है ये आवेग और ये क्लेश
जब १६ साल की कोई पड़ोसी  धरती है दुल्हन का वेश

क्यों नहीं उठती है वही प्रखर ज्वाला, होता ह्रदय विह्वल
जब घर की चाहरदीवारियों में बेटी को लगाया जाता है साँकल

शिक्षा से कौशल ना देकर, हम देते उसे चूल्हे का ज्ञान
और बेड़ियों में बंद कर  हम करते अबला का सम्मान  

यही वजह है की राम नाम का “रावण” जन्म से जानता है
दामिनी हो या मुन्नी, उसे बेड़ियों में असहाय ही मानता है

ये भी जानता है, समाज के पास नहीं है “ढाई किलो का हाथ”
समाज के पास है बस मोमबत्ती, सजल-नयन, और बड़ी बड़ी बात

अमा दिवस में, अमा निशा में, अमा ह्रदय में, अमा हर कण में
आँसू झूठे, आहें झूठी, ये कविता झूठी, है झूठ भरा हर उस प्रण में

जब तक हम युवा, लेकर दृढ निश्चय खा ले आज सौगंध
सबसे पहले अपने घर में हम बदलेंगे कुरीतियों के ढंग

(निहार रंजन, सेंट्रल, १२-३०-२०१२ )

Tuesday, December 25, 2012

आ सजा लो मुंडमाल


“फूल” थी वो, फूल सी प्यारी
जब कुचली गयी थी वो बेचारी

जीवन में पहली उड़ान लेती वो मगर
तभी किसी ने काट लिए थे उसके पर

हंगामे तब उठे थे चहुँ ओर
कान खुले थे सरकार के सुनकर शोर

कलम की ताकत को तब मैंने जाना था
कलम है तलवार से भारी है, मैंने माना था  

बरसों बीते, और जब सब गया है बदल
पर बलात आत्मा मर्दन क्यों होता हर-पल

क्या गाँव की, क्या नगर की कथा
एक ही दानव ने मचाई है व्यथा

कभी यौन-पिपासा, कभी मर्दानगी का दंभ
क्यों औरत ही पिसती हर बार, होती नंग

क्या भारत, क्या विदेश, किसने समझा उसे समान
कहीं स्वतंत्रता से वंचित, तो कहीं न करे मतदान 

क्यों है आज़ाद देश में अब तक वो शोषित
क्या है जो इन “दानवों” को करता है पोषित

एक प्रश्न करता हूँ तो आते है सौ सवाल
कैसे इन “दानवों”  का है उन्नत भाल

कहाँ है काली, कहाँ है उसकी कटार
क्यों ना अवतरित होकर करती वो संहार  

क्यों कर रही वो देर धरने में रूप विकराल
बहुत असुर हो गए यहाँ, आ सजा लो मुंडमाल  

क्यों कर  सदियों से बल प्रयोग
वस्तु समझ किया है स्त्रियों का भोग
  
बहुत हो गया अब, कब तक रहेगी वह निर्बल
बदल देने होंगे तंत्र, जो बन सके वह सबल

ना बना उसे लाज की, ममता की मिसाल
निकाल उसे परदे से, चलने दो अपनी चाल  

उतार हाथों से चूड़ियाँ, लो भुजाओं में तलवार
“नामर्द” आये सामने तो, कर दो उसे पीठ पार  

ताकि कभी फिर, कोई ना बने “अभागिनी”
फिर ना सहे कोई, जो सह रही है दामिनी    

      (निहार रंजन, सेंट्रल, २५-१२-२०१२)

     फोटो: http://www.linda-goodman.com/ubb/Forum24/HTML/000907-11.html



Saturday, December 15, 2012

सच्चा प्यार


प्यार ही हैं दोनों
एक प्यार जिसमे
दो आँखें मिलती  हैं
दो दिल मिलते हैं, धड़कते हैं
नींद भी लुटती है और चैन भी
जीने मरने की कसमें होती हैं
और प्यार का यह दूसरा  रूप
जिसमे न दिल है, ना जान है
ना वासना है, ना लोभ
ना चुपके से मिलने की चाह
ना वादे, ना धडकते दिल
क्योंकि इस प्यार का केंद्र
दिल में नहीं है

क्योंकि इस प्यार का उद्भव
आँखें मिलाने से नहीं होता
इस प्यार का विस्तार
द्विपक्षी संवाद से नहीं होता
ये प्यार एकपक्षीय है
बिलकुल जूनून की तरह
एक सजीव का निर्जीव से प्यार
एक दृश्य का अदृश्य से प्यार
जिसकी खबरें ना मुंडेर पर कौवा लाता है
ना ही बागों में कोयल की गूँज

बस एक धुन सी रहती है सदैव
जैसे एक चित्रकार को अपनी कृति में
रंग भरने का, जीवन भरने का जूनून
ये भी एक प्रेम है, अपनी भक्ति से 
अपनी कला से, अपनी कूची से, अपने भाव से
जैसे मीरा को अप्राप्य श्याम के लिए
नींद गवाने की, खेलने, छेड़ने की चाह

यह प्यार बहुत अनूठा होता है
क्योंकि इसमें इंसानी प्यार की तरह
ना लोभ है , ना स्वार्थ
ना दंभ है, ना हठ
सच्चे प्यार की अजब दास्ताँ होती है
वो प्यार जिसका केंद्रबिंदु दिल नहीं
इंसान की आत्मा होती है
क्योंकि सच्चे प्यार को चाहिए
स्वार्थहीन, सीमाओं से रहित आकाश 
एक स्वछन्द एहसास
और वो बसता है आत्मा में
क्योंकि आत्मा उन्मुक्त है

कुछ पता नहीं चलता कब, कैसे
सच्चा प्यार हो जाए
किसी ख़याल से, किसी परछाई से
किसी रंग से, किसी हवा से
किसी पत्थर से, किसी मूरत से
किसी लक्ष्य से, किसी ज्ञान से  
घंटे की ध्वनि से, उसकी आवृति से
किसी बिछड़े प्रियतम की आकृति से

(निहार रंजन, सेंट्रल, १५-१२-२०१२)

Saturday, December 8, 2012

फिर हो मिलन मधुमास में



फिर हो मिलन मधुमास में

चहुँ ओर कुसुमित यह धरा
कण-कण है सुरभित रस भरा
क्यों जलो तुम भी विरह की आग में
क्यों न कलियाँ और खिलें इस बाग़ में
मैं  ठहरा कब से आकुल, है गगन यह साक्षी
किस मधु में है मद इतना, जो तुझमे मधुराक्षी
दो मिला साँसों को मेरी आज अपनी साँस में 
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

यूथिका के रस में डूबी ये हवाएं मदभरी
हो शीतल सही पर अनल-सम  लग रही
विटप बैठी कोयली छेड़कर यह मधुर तान  
ह्रदय-जलधि के मध्य में उठाती है तूफ़ान
है पूरित यहाँ कब से, हर सुमन के कोष-मरंद
देखूं छवि तुम्हारी अम्लान, करें शुरू प्रेम-द्वन्द
फैलाकर अपनी बाँहें बाँध लो तुम फाँस में
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

ये दूरियां कब तक प्रियवर, क्यों रहे तृषित प्राण
क्यों ना गाओ प्रेमगान और बांटो मधुर मुसक्यान
इस वसुधा पर प्रेम ही ला सकती है वितामस
प्रेम ही वो ज्योत है जो मिटा सके अमावस
हो चुकी है सांझ प्रियतम झींगुरों की सुन तुमुल
आ लुटा रसधार सारी जो समाये हो विपुल
दो वचन चिर-मिलन का आदि, अंत, विनाश में
आ प्रिये फिर हो मिलन मधुमास में

(निहार रंजन, सेंट्रल, ८-१२-२०१२)



फोटो: यह चित्र मित्र डॉ मयंक मयूख साहब ने  न्यू मेक्सिको के उद्यान में कुछ दिन पहले लिया था. यही चित्र इस कविता का मौजू भी है और कविता की आत्मा भी. यह कविता मित्र मयंक के नाम करता हूँ.  
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Monday, December 3, 2012

आतिश-ओ-गुल



ये तो मैंने माना, ज़िन्दगी एक सज़ा है
पर कौन जानता है, इससे बेहतर क़ज़ा है

ये परवाने जानते हैं, या जानता है आशिक
कि आग में डूबने का, अपना एक मज़ा है

नश्तर के ज़ख्म हो तो, हो जाता है दुरुस्त
पर हाय ज़ख्म-ए-दिल की, अब तक नहीं दवा है 

काँटों से कब तक खेलूँ, हो चुके हैं हाथ छलनी 
कागज़ का भी चलेगा, दो कुछ भी जो फूल सा है 

दरिया में फैला ज़हर, और समंदर ठहरा खारा
इस तश्नालब के खातिर, रह गया बस मयकदा है
   
अब कैसे उठेगा धुआँ, अब कैसे उठेंगी लपटें
ना बची है आग, ना भड़काने को हवा है

उनको ही मौत मिलती, जो खुद ही मर रहे हैं
ऐसे में कैसे कह दूँ, इस दुनिया में खुदा है

लगता है जैसे सर से, उतरा है सारा बोझ
इस माथे को जब से, माँ ने मेरी छुआ है

(निहार रंजन, सेंट्रल, १८-११-२०१२)

क़ज़ा = मौत
दुरुस्त = ठीक
नश्तर = तीर
तश्नालब = प्यासे होंठ/प्यासा 
मयकदा = शराबखाना