Sunday, November 13, 2016

मुरैनावाले के लिए

तुम्हारे शब्द ध्वनिमात्र थे या
खून का रिसता दरिया
पता नहीं चल पाया कि तुम्हारे आत्मा की आवाज़
या तुम्हारे सिगरेट का का धुंआ
इसी व्योम की अप्रतिबंधित यात्रा को निकले थे
( बस  निकल कर विलीन होने को)
बहुत अँधेरे में जीते थे तुम
(और तुम्हारी फूलन देवी)
प्रेम शब्द जीवन में छलावा भर से ज्यादा है?
अपने ही घोंसले में कैद थे तुम
कितने छद्म की गांठों पर
बहुत महीनी से तलवार चलायी तुमने
और जीवन की सच्चाई भी अपना तलवार चलाती रही
(७० साल के कश्मकश के बाद का हासिल क्या अलग है)
नहीं होगी अलग, कभी नहीं नहीं होगी
मन, हृदय और लिंग
जिसके त्रिकोण में फंसी आत्मा, मनुष्य का प्रारब्ध है
मृत्यु वीभत्स है, या जीवन
इसका पता किसे है?
चाँद का मुंह टेढ़ा क्यों है
इसका पता किसे है ?

(ओंकारनाथ मिश्र, सागर, १३ नवम्बर २०१६)


Saturday, October 22, 2016

विचयन-प्रकाश

तुमने मुझे खून दिया
मैंने तुम्हारा खून लिया
तुमने मुझे खून से सींचा
और मैंने चाक़ू मुट्ठी में भींचा
शब्द नवजात की तरह नंगे हो गए
बस अफवाह पर दंगे हो गए
परकीया के हाथ पर बोला तोता
तुमने ही चूड़ियाँ बजाई, तुमने ही खेत जोता
झंडे पर शार्दूल, ह्रदय  में मार्जार
रसूलनबाई का हाल ज़ार-जार
धान के खेतों के बीच की चमकती दग्धकामा
बिदेसिया के प्रीत रामा! हो रामा!
लालारुख का अंगीठिया रुखसार
जैसे कोई आयुध, वैसी रतनार
बारिश के झोंकों सी तंज सहती एक नववधू
जैसे सहरा की बूँद हो एक शिशु  
पर क्या मिला कि मेरे गमले के पौधे सूख गए
और फूल काँटा बन मुझे बेध गया
मेरी मनस्कांत
यानि शान्ति! रहने नहीं देगी शांत
अपनी सीमाओं में रागान्वित मेरी सीता
कहती है इस दाल और तेल पर क्या नहीं बीता
एक छद्म-छवि पर योगित मेरा योगी
कहता है मैं ठहरा आदि-भोगी
उद्दांत उर्मियों के पार्श्व की विस्फारित सुर्खियाँ देखकर
मेरे “ह्रदय-डाल की सूखी टहनी से चिड़ियाँ ने कहा
प्रेतकुल सम्राट! दो हाथी, तीन घोड़े, पांच बाघ”
मेरी समन्वित चेतना, प्रवीर
मेरा चितवन, अल्प, अपरिसर
मेरे निरिच्छ मन की निर्मूल भ्रांतियां
मेरे लोकित स्वप्न
है तब तक जब तक वो चित्रकार है
जो कूची छोड़कर, करता सामूहिक नरसंहार है
और मेरे डाल की चिड़ियाँ कहती है
रात की ये चाँदनी
ये चाँदनी, ये चाँदनी


(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू २२ अक्टूबर २०१६)

Saturday, July 9, 2016

ये कैसा बंधन

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
घने घन की तरह उठकर
मुझमे ही प्रस्तारित हो
गिरती तेज झोंके की तरह
स्निघ्ध स्नेह सलिल बनकर
भिंगोती  बाहर अंदर

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
मदमाती सुवास बन आती हो
शिराओं में स्थान बनाकर 
हर स्पन्दन संग बहती जाती हो
मेरे ही मुस्कानों में मुस्काती हो
और सम्मुख होने से लजाती हो

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
बूँद-बूँद अनुक्षण रिसते
हिमशैल की तरह पिघलती हो
नदी धारा का  प्रवाह बनकर
जिधर मन हो चलती हो
उन्मुक्त लहर बन मचलती हो

ये कैसा बंधन जिसमे तुम
और हम एक ही वृत्त के दो परिधि-बिंदु है
हमारे बीच की रेखा व्यास है
बस एक यही प्यास है
कि ये तिर्यक रेखाएं, ये त्रिज्या, ये कोण
क्यों नहीं होते गौण
व्यास के ये दो बिंदु नादान
मिल क्यों नहीं करते एक नए वृत्त का निर्माण

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १० जुलाई २०१६)

Thursday, July 7, 2016

मैं बंधा उस डोर से

मैं बंधा उस डोर से
जिस डोर में तुम बंध गए तो
क्या ये अंबर, क्या ये चिलमन
क्या ये उपवन, क्या ये निर्जन
क्या ये बादल, क्या ये शीतल
क्या गगन ये खाली-खाली
क्या गिरि के तुंग पर बैठे हुए से, पूछता है ये सवाली
तुम बताओ! तुम बताओ
क्यों भला इस डोर के दो छोर को मिलने ना दोगे
क्यों भला चटकी कली खिलने ना दोगे

मैं हूँ डूबा उस नशे में
जिस नशे में तुम मियाँ डूबे अगर तो
रात से हिल-मिल के सहसा
पूछ लोगे एक दिन तुम चाँद से
कि ओ रे दागी!
ओ रे दागी!
वो सितारा है कहाँ ब्रम्हाण्ड में
जिसने पलक भर, मिलके बस इतना कहा था
आऊँगा एक रोज शिद्दत से अगर चाहा मुझे
बता दागी! कहाँ है वो सितारा
बता दागी! कहाँ है वो किनारा

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, ७ जुलाई २०१६ )


Wednesday, May 25, 2016

कि बादल आये हैं

नाच उठा है मोर कि बादल आये हैं
यही बात सब ओर कि बादल आये है

सुरमई है हर एक किनारा अम्बर का 
बिजली ढन-ढन शोर कि बादल आये हैं

वो आँसूं भी सूख चुके हैं तप-तपकर  
ढलके थे जो कोर कि बादल आये हैं

बाँध लिया है झूला मेरे प्रियतम ने
चला मैं सारा छोड़ कि बादल आये हैं

पौधे, पंछी, मानव सबकी चाह यही
बरसो पूरे जोर कि बादल आये हैं

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, २५ मई २०१६)                                                                                                        

Friday, May 13, 2016

अन्वेषण

उन्हीं कणों का मैं एक वाहक
जिसमे रच बस गए हजारों
जिसमे बस फंस गए हजारों
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

मदिर पिपासा लिए हिमालय से
चल पहुंचा सिन्धु की छोर
छोर मिला ना, सलिल-बूँद! हाँ
चला हूँ अब अरावली की ओर

पर एक पिपासा, मदिर पिपासा
मेरी साकी, मेरा सांप
मेरा समतल, मेरा चाँप
रखूंगा कब तक उसको झांप
मेरी साकी, मेरा सांप
जिसकी गाथा दूर, दूर, से दूर कहीं पर एक गगन में
एक गगन क्या दूर, दूर, से दूर कही पर कई गगन में
उन्हीं कणों का एक वाहक  
मेरी साकी, मेरा सांप
उन्हीं कणों का मैं एक वाहक

धूप खिली थी, छाँव नहीं थी
मैंने छाँव नहीं माँगा था
नगर-डगर थे, डगर-शहर था
मैंने गाँव नहीं माँगा था
सोच रहा हूँ वो नादानी
जिसके कारण बिना स्वप्न के रात गयी
और खड़ी है शशिबाला ये
गुमसुम चुप-चुप कहती मन में
उन्हीं कणों के वाहक तुम भी
उन्हीं कणों की वाहक मैं भी
जिसे तलाशो अंतरिक्ष में
नींद वहीँ पर, चैन वहीँ
और वहीँ पर तेरा साकी, तेरा सांप
रात नहीं वो, बिना स्वप्न जो बीत गयी
कह देना उस साकी से तुम    

(ओंकारनाथ मिश्र, वैली व्यू, १४ मई  २०१६ )


Tuesday, February 9, 2016

प्रश्न

बाइबल से निकले हुए भाव थे शायद-
“गॉड कैननॉट गिव यू मोर दैन यू कैन टेक”
कर्ण-विवरों में आशा की ध्वनियाँ
कोठे पर नाचनेवाली की पायल
अक्सर, अच्छी लगती है- बहुत अच्छी
और साथ ही यह भी-
“व्हाटऐवर हैप्पेंस, हैप्पेंस फॉर द बेस्ट”
जुमले नहीं है ये
सिद्धहस्तों के सूत्र हैं-जीवन सूत्र

लेकिन मेरे ही पड़ोस में रहती है-
श्रीमती(?) महलखा चंदा
बर्तन धोती है, बच्चों के पेट भरती है
कितने नालायक बच्चे है
जबसे स्कूल छूटा .........
बस आवारागर्दी
चाहे गर्मी हो या सर्दी
दो बरस से जब
इनके पिता दंगे की गाल आये
और महलखा उतर आई चौका-बर्तन करने 

सिद्धहस्तों के सूत्र हैं-जीवन सूत्र
“व्हाटऐवर हैप्पेंस, हैप्पेंस फॉर द बेस्ट”
पूछ लूँ ?

(ओंकारनाथ मिश्र, नॉएडा, ९ फ़रवरी २०१६ )


Saturday, January 16, 2016

एक दिन

कई महीनों  से 'ग़ज़ल' लिख पाना संभव नहीं हो पाया. ग़ज़ल की पूरी समझ अभी भी नहीं है मुझे. रदीफ़ और काफियाबंदी जरूर कर लेता हूँ अब. लेकिन बहर के लिए शायद किसी उस्ताद का शागिर्द बनना होगा.  नज़ाकत और नफ़ासत के लिए खासकर.   अभी एक नयी 'ग़ज़ल' लिखी है.  नया नाम और तखल्लुस के साथ. आपकी नज़र.  मौजू , तखल्लुस के हिसाब से हैं.


एक दिन

बज ही जायेगी तुम्हारी साज़-ए-हस्ती एक दिन
फिर बशर है क्यूँ तिरी मतलब-परस्ती एक दिन

तुम मुसाफिर इस दहर के, दो दिनों की बात है  
और  तब   तो   डूबनी है तेरी कश्ती एक दिन

शादमां कुछ, ग़मज़दा कुछ, और कुछ हैरान से
हाल यक सा है  यहाँ हर एक बस्ती एक दिन

क्या करोगे तुम मियाँ लेकर ये गौहर साथ में
होवेगी जब यां तिरी ‘कज्ज़ाक-गश्ती’ एक दिन

‘ख़ाक’  है जो साथ तेरे बस यही एक वक़्त है
कौन जाने हो तुम्हारी फिर से मस्ती एक दिन


-ओंकारनाथ मिश्र ‘खाक़’

(ग्वालियर, १६ जनवरी २०१६)